बैंगन की उत्क्रांति

बैंगन की उत्क्रांति

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भाषा अपनी है हैदेरबादी थोडा मजा लेके पढो। अपना गाँव और गाँव के लोगां और उनके कारभारा जानने के हूंगे तो मै क्या बोलता थोडा पांच दस किलोमीटर रोज पैदल चलो या साइकल पे चल के देखो यारो.! वैसा दौड़ के भी देख सकते लेकिन वो क्या बोलते ना अपुन एक क्रांति करे ,यहाँ तक आते आते, और क्या बोलते उसकू बोलेतो "उत्क्रांति" वहीच भई डार्विन वाली. नै नै यारो बंदरों वाली कोई बात नहीं कररा मैं, फालतू चर्चे पे अपना कीमती टेम का खर्चा नक्को, फालतू के उत्क्रान्त्या भोत टाईप के भोत कर लिये अपुन. नक्कोच नाकोच की, “अपने पूर्वज कौन थे” वाला सवाल ?? मेरेकू पूछो मैं बोलता मेरे पूर्वज मेरेच बाप दादा थे, बस्स ! उत्ताच बस मेरेकू. और ज्यादा पुराने गड़े मुर्दे हम सब के उखाड़ो नक्को, बदबू मारते सब के सब. तो जैसा मैं जो बोल्रा था वो ~ की पैले भोत दौड़ते थे अपुन, अरे शिकार करके खाना बोलेतो क्या मजाक समझे थे. अपने पुर्वजां, भाग भाग के शिकार करते थे खाना पकड़ने के वास्ते. मेरे पडदादा के पडदादा के पडदादा और उनके रीस्पेक्टेड पडदादा जो थे ना, वो तो इत्ते एक्सपर्ट थे बोले क्या बताऊँ. अब मेरेकू कैसा मालुम ? नक्को पूछो, हमकू तुमकू और अपने हरकतां देखकेईच पूरा प्रूफ मिलता. ये तीर कमाना बाद में आये बाशा, तो तीर कमाना और बन्द्क आते ही अपुन कौनसी क्रांति करे बोलेतो, माँ की किरकिरी दौड़ना छोड़ दिए, बैठे बैठे तीरा मारके शिकार करने लगे. बैठे बैठे तीर मारने में अपुन उत्क्रांति लाये बोलो, समझे अब पॉइंट कु।

अच्छा याद आया अब येइच क्रांति देखो ना, पैले चलके जाके यार मेहमानों का थोबड़ा, हाल हवाल, बातें शातें, चाय पोहे, पसंती नापसंती ये सोब बाता आमने सामने होती थी ~ और अब बैंगन की उत्क्रांति कर लिये और बैठे बैठे, फेसबुक पे तीरा मार्रे नासपीटे सब. आरे खमिनईन्सानो मैं क्या बोलता बोलेतो, ऐसा फटे तक बातां करे तो सच्चाई और है सो हालातां बदलते क्या रे, हऊ रे! बोलो ज़रा! उत्क्रांति कते उत्क्रांति पैले, अरे लाला ! पैले अपने जमाने में तमीज नाम की चीज थी, क्यों की पैरों के सहारे चलना पड़ता था, ज़िन्दगी में आप धापी थी, दौड़ना पड़ता था, शरिर में दौड़ने वाला खून पसीना बनके टप टप करके बॉडी के हर छेद से गलता था, और उसकी किम्मत थी. छेदां चमड़ी के बोला था यारो, गंदे इंसान उत्क्रांति में कुछ भी सोचना अलग सिख लिया ? हर बात का डब्बल मीनिंग, डिक्शनारियों में ढूँढो, मेरे बातों में नक्को बोल देरु. तो मैं बोलरा था की अब बैंगन पकड़ के दिन भर खुर्ची पे बैठा रहते लोगां, जो दौड़ता चलता उसकू पागल बोल्लेके हस्ते, मजाकां उडाते, और कंप्यूटर से बड्डे बड्डे बातों के तीरां मार मार के ऐसे ऐसे शिकारा कर्र्रा ये इंसान पूछो मत. वेराईटी है उसके पास हर काम में बाशा! टापिक पे आते, डायवर्सन नक्को, गाडी किधर के किधर जाईंगी, चुप्पिच और कुछतोबी नइच उत्क्रांति हो जाइंगी , छोड़ो।

तो मैं क्या बोलरा थोडा चलो, दौड़ो, थोडा निकलने द्यो पसीना, कब तक दूसरों के पसीने निकलते रहिंगे, यूँ फेबू और खुर्सी पे बैठ बैठ के. करम से मरिंगे बोलरुं मैं. अरे कोसरुं नै यारो, करम बोलेतो बीपि, शुगर ऐसा रहता. बीमारिया भी क्रांतिकारी हुए, फिर गोप्चुप बैठते क्या ?? तुम्हारे “उत्क्रांति” में, वो भी नए नए इश्टलां में डेवेलोप होते रेते. अब बिलकुल चलना नक्को सर के उप्पर ऐ.सी., पेंदे के निच्चे ऐ.सी., दुनिया भरे का इश्टाइल और स्टेटस सिम्बोल बनके फिरिंगे ना, तो सिर्फ तुम्हारा सिम्बोल रह जैंगा आखरी में तुम्हारे ‘थडगे’ पे बोल देरूं. मेरे से नै होता, नै होता करके रोओ नक्को फादी में, अब कुछ भी नै होता बोलेतो और “उत्क्रांति” के नाम पे अरामिच करने का हूंगा तो, मेरे भाई कम से कम साइकल तो भी चलाओ बोल्ता मैं. कैसा है गाँव और गाँव के लोगां और उनके कारभारा, अगर पैदल चले तो १०० परसेंट समझते, दौड़े तो (होउ मालुम उत्क्रांति में कोई दौडके कामां नै कररे बोलके, फिरभी थेओरोटिकली प्रैक्टिकल होके बोलना अपना काम है), तो दौड़ेके कामा करे तो ७५ टक्के समझता, और साइकल पे करे तो ५० टक्के बाजार और समाज के हाल चाल रियल में समझते. और ऐसी में बैठ के “लोकेशना” चेक करते रहिंगे ना, तुम्हारेच कोओरडीनेटां कब गायब हो जैंगे इस ज़मीन पे से और ट्रान्सफर हो जैंगे ऊपर वाले के किताब में किसिकुच पता नै चलिंगा, सिर्फ प्रोफाइल पिक हजारो दोस्तों के फेसबुक लिस्ट में से निकल से चार लोगों के एक घर के एक दीवार के कोने में लटका रहिंगा थोड़े साल! होऊ !! मामला डेंजर और सीरियस है, सोच्ल्यो! क्या करते बोलो अब ! मैं तो बोलरूं उठो अब्बिच और करके देखो ! हरकत करिंगे तो बरकत में रहिंगे और जन्नत में मरिंगे ! वैसा सब आसानिच रेता, करने वाला होना !


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