Dr Shiva Aithal

Inspirational Others

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भासाब

भासाब

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जीवन में पहली बार, अक्ल और समझ आने के भी पहले, हर इंसान के जीवन में एक मित्र होता है बचपन का, अल्लड और निर्दोष उम्र का पहला मित्र। मेरा भी ऐसा एक मित्र है जिसका नाम है राजू। मॉडल इंग्लिश स्कूल में पढ़ते पढ़ते राजू कब मेरा "बेस्ट फ्रेंड" बन गया पता ही नहीं चला। 1975 का समय अलग था और तब घर वालों की हिम्मतें भी कुछ और थी, ना कि आज के जैसे जहां हम चार-पांच वर्ष की आयु के बच्चों को दूसरों के घर में कदापि जाने देंगे। परभणी में शिवाजी रोड स्थित मेरे घर से मारवाड़ी गली में रहने वाले राजू का घर कुछ 200 मीटर की दूरी पर था और स्कूल से आते जाते राजू के घर आना जाना मानो नियम सा बन गया था। ज्यों ज्यों हम बड़े होते गए त्यो त्यों घर की दूरियां और कम होती गई। घर और परिवार के सदस्य एक दूसरे के ज्यादा परिचित होते गए, विशेष दिनों और त्योहारों पर एक दूसरे से घूल मिलकर आमंत्रित करते गए, और हमें एक दूसरे के घर बिनधास्त बिना पूछे आने-जाने का लाइसेंस मिल गया।

बहुत छोटी उम्र में एक साधारण सा घर भी बहुत बड़ा लगता था और कुछ खेल, जैसे लुक्का छूप्पी ऐसे घरों में बखूबी खेली जा सकती थी। हम चार-पांच मित्र, मैं, संदीप, बालाजी, शफी, हमेशा राजू के घर में मिलने वाले जातियों में से थे। घर में अगर हम बहुत देर तक हमारे मां-बाप को नहीं मिले तो सीधा राजू के घर में होगा यह निष्कर्ष तय था। 

बचपन की नादान उम्र की दोस्ती को आज तक घनी रखने के मूल कारण होते हैं घरवाले। राजू के पिताजी को राजू सहित तीनो भाई मिलकर "भासाब" कहते थे। तो हम भी उन्हें आज तक "भासाब" ही बुलाते रहे। भासाब एक ऊंचे चौड़े कद के, शुभ्र वस्त्र धारण कर, घर की सारी जिम्मेदारी अपने कंधों पर लिए चलने वाले एक सटीक, मजबूत एवं व्यस्थ व्यक्तिमत्व थे। मैंने बचपन से उन्हें एक सशक्त और निर्णय क्षमता वाले इंसान के रूप में ही देखा है। उम्र की 75 पार करने पर भी वह स्वयं अपनी दुचक्की होंडा गाड़ी खुद चला कर व्यावहारिक जीवन बखूबी निभाते रहे। एक नादान मन में इन सारी चीजों का चित्रीकरण उसके बड़े होने पर उसके चरित्रीकरण का कारण बन जाते हैं। 

उन दिनों "भासाब" पूरे परभणी जिल्हे के लिए निरमा वाशिंग पाउडर के मूल वितरक थे। कई ट्रकों में यह माल लद कर आता था और उनका वितरण होता था। एक के ऊपर एक आसमान को छूती निरमा के पोतो के आगे पीछे और उनकी बनी गलियों में दौड़ना खेलना कूदना हमारा पसंदीदा काम था और आसपास ही काम करने वाले "भासाब" ने हमें कभी भी रोका टोका नहीं था। घर से दुकान गोडाउन और घर की जिम्मेदारियों की भगदौड में उन्हें मैने कभी भी तोल खोते हुए नहीं देखा।

7-8 उम्र की मेरी आयु में (एवं आज तक) राजू मेरा एक ऐसा मित्र था कि बचपन में 24 घंटे में, अगर हम सो नहीं रहे होते तो, दोनों के मन में सिर्फ एक ही विचार यह रहता था कि किस तरह मैं उसके घर जाऊं, या राजू मेरे घर आए, बस दुनिया में और कोई दूसरी आस नहीं रहती थी। उन दिनों समय और वातावरण भी इतने अनुकूल थे कि इन छोटी-छोटी आशाओं को घरवाले बड़े दिल से पूरे होने दे देते, जो सौभाग्य दुर्भाग्य से आज हमारे बच्चों को नहीं है। अब मेरे घर राजू के क्या अनुभव थे वह तो राजू ही बताएं, पर मैं एक-एक दिन के आनंद और खेल कूद वाले अनुभव, राजू के घर के, जिंदगी भर मै नहीं भूल पाऊंगा। उस आयु में मैं एक ऐसा लड़का था जो 4 वर्ष की उम्र में अपने मां को खो चुका था। राजू की मां ने कभी राजु में और मुझ में फर्क नहीं जताया। उस मां की हाथ की रोटियां विशेषत: आम का अचार, जो लाल तेल में डूबा रहता था, वो बड़ी सौंफ मिश्रित खुशबू मेरे जुबान और मस्तिष्क पर आज भी तरोताजा एवं जिंदा है। मां तो मां होती है परंतु मुझे उन खाने के समय पर के "भासाब" आज भी याद आते हैं, जो व्यस्त होते हुए भी, घर में खेलते कुदते, शोर, मचाते हुए हम तीन चार मित्रों को देखकर, अपनी धर्मपत्नी से, बड़े गंभीर स्वर में यह पूछना कभी नहीं भूलते थे, "अरे! टाबरीयो जीमिया कि नै? कैतरी खाबा ना दे इमे" उन दिनों आज की तरह हल्दीराम या कुरकुरे के पैकेट घर पर लाने की सुविधा तो थी नहीं परंतु घर पर ही मुरमुरा, चिवड़ा, पोहे और रोटी-आचार या दाल-चावल राजू की मां अपने हाथों से बनाकर हम बच्चों को बिठा कर खिलाती थी। कईयों बार कुछ ही दूर एक लकड़ी के आसन पर विराजमान होकर "भासाब" भी हमारे साथ खाकर, पास ही रखें पीतल के लोटे को उठाकर अपना हाथ मुंह धोकर, कुल्ला कर कर, काम पर चल दिया करते थे। 

"भासाब" में बचपन से ना हममें और ना उनके पोते पोतियो में, कौन कितनी पढ़ाई कर रहा है, या कौन कितने मार्क लाया यह ना कभी जानने की कोशिश की, और ना ही इस तत्व पर किसी का भेदभाव किया। शायद बच्चों को स्वतंत्र खेलने के लिए दी गई उनकी व्यक्तिमत्त्व की आजादी हममे उन्हे और उनके चरित्र को बडा करती गई। उनके खंदो पर हमेशा एक गंभीर और जिम्मेदार एवं विश्वास से भरा चेहरा नजर आता रहा, जो आज अनुवंशिकता से राजू मे बखुबी आ गया है। छोटे खेलते कुदते एवं बढ़ते बच्चों के नज़रों के लिए यह एक बहुत बडि प्रेरणादाई परीस्थिति होती है, जो कोई स्कूल या कॉलेज के किताबों में पढ़ने सीखने से नहीं मिलेगी। इतने गंभीर होते हुए भी हमेशा से मुझे "भासाब" का नीचे चित्र में दिया गया चेहरा ही याद रहा और रहेगा। इसका कारण था उनकी दिल से निकलने वाली अद्भुत एवं वास्तविक हंसी। उनके जमाने में वह और उनके सह मित्र, "बैठक" में कुछ इस तरह से हंसी के फव्वारे और ठहाके मारते थे कि हम आसपास खेलते हुए तीन चार मित्र भी खेलते खेलते, अपना खेल भूलकर, बिना वजह उनके साथ उतनी ही देर हंसते रहते थे।उनको उस स्थिति में याद करता हूं और उनकी नैसर्गिक हंसी को सोचता हूं तो, आधुनिक "लाफ्टर क्लब" एक बहुत बड़ा नाटक लगता है। आज भी कभी राजू के साथ गप्पे मारते हुए, मुझे बीच बीच में राजू के चेहरे पर वही "भासाब" की हंसी का सौम्य स्वरूप नजर आता है।

बहुत खास भले ही ना हो मगर "भासाब" के दो प्रसंग मेरे जीवन में मुझे हमेशा याद रहे हैं। मैं तब बहुत छोटा था और उन दिनों क्रम यह होता था कि कोई मित्र के घर जाने पर दरवाजा खटखटाओ जोर से उसका नाम पुकारो और इंतजार करो। मित्र घर पर होगा तो स्वयं चल कर आएगा द्वार खोलेगा और वह घर अपना हो गया। मित्र ना हो तो अंदर से किसी की आवाज आएगी कि राजू घर पर नहीं है और फिर हम निराश होकर अपने घर हो लिए, और अगले शुभ मुहूर्त का इंतजार बेसब्री से करते रहे। ना मोबाइल, ना फोन, ना व्हाट्सएप, ना गिले ना शिकवे, बस सिर्फ इंतजार जो खत्म होने पर एक अनंत खुशियों का भंडार लाती थी, और दोस्त के मिलने पर कोई बकवास प्रश्न पूछने या इल्जाम करने की ना अक्ल थी ना तो फुर्सत, बस मिले यही बड़ी बात और अपनी मस्ती में खेलकूद शुरू। सचमुच वह दिन भी क्या दिन थे। ऐसे ही एक दिन मैं दरवाजा खटखटा कर दो बार राजू का नाम चिल्ला कर वहां पर खड़ा था कि "भासाब" पीछे से आ गए और दरवाजा खोल मुझे अंदर ले गए और बैठने को कहा। उन्होंने हाथ पांव धोकर खाना खाने विराज गए और मुझे भी साथ बिठाकर खाना खिला दिया। पूरे समय मैं बड़ा चिंतित और त्रस्त था क्योंकि राजू वहां नहीं था। अपना खाना खत्म करके अपनी ही शैली में वापस दुकान चले गए। मैं राजू के मां के हाथ का खाना खाकर, वहां परेशान सा थोड़ी देर बैठा रहा। उस दिन शायद पहली बार मुझे यह भी पता चला कि साथ मित्र ना हो तो उसी खाने का स्वाद कुछ अलग ही हो जाता है। कुछ मिनटों बाद डरा सहमा मैंने मां से पूछा कि राजू कहां है तो उसने कहा कि वह कहीं गया है और शाम को ही आएगा। मैं वहां से पूछ कर अपने घर आ गया और "भासाब" का एक और चरित्र पाठ स्वरूपी अपने साथ ले आया।

"भासाब" हमारे लिए इतने बड़े थे कि हम जब नौकरी करने लगे तब भी उनका एक आदर युक्त भय हमारे मन में हमेशा रहा। आज भी उनके दुकान पर हम गए तो एक आसन पर विराजमान "भासाब" किसी राजा से कम नहीं लगते थे। आने वाले हर व्यक्ति को अपने दरबार में बिठाकर उनकी कुशल मंगल का हाल हवाल पूछ कर चाय पानी नाश्ता कराएं बिगैर कभी किसी को जाने नहीं देते थे। मेरी उनकी मुलाकात छह सितंबर को इसी प्रकार अंतिम हुई थी जब उन्होंने "अरे! शिऊ (हमेशा मुझे उन्होंने मुझे ऐसे ही पुकारा) अंदर आना रे !! चाय पीकर जा" कहा था। व्यावहारिक जीवन के कई प्रश्न मैंने उनसे पूछ कर सुलझाए थे। हमने जब एक जगह बांधी थी, तब किराए पर किस तरह से किसे देना यह समझ नहीं आ रहा था, तो मेरे पिताजी ने मुझे "भासाब" से सलाह लेने को कहा था। उन्होंने कहा था कि, "तेरे पिताजी जैसे सीधे व्यक्ति के लिए,भले थोड़ा किराया कम आए परंतु, बैंक का ए.टी.एम. ही ठीक रहेगा" उन्होंने बैंक के मैनेजर के साथ वार्तालाप कर हमारी यह असमंजस सुलभ किया था। पंद्रह साल बाद आज भी हमारी उस जगह पर एटीएम ही चलता है।

आज "भासाब" और उनके जैसे कई चरित्र इस दुनिया को जब छोड़कर चले जाते हैं तब एक युग की समाप्ति का घोषणा होते हुए नजर आता है। मेरे बचपन से आज तक मेरे पिताजी को छोड़कर कुछ व्यक्तियों ने जिन्होंने मेरे घर के बाहर के जीवन में सकारात्मक प्रभाव किया है "भासाब" उनमें से एक थे। "भासाब" आज भले ही राजू को, और कईयों को अनाथ कर गए, मगर राजू में जरूर चरित्र स्वरूपी आ गए और अमर हो गए। नंदकिशोरजी कछरूलालजी अग्रवाल उर्फ "भासाब" को शत शत नमन। भगवान उनकी आत्मा को शांति दे और उनकी अच्छाइयों को उनके बच्चों में उन्हीं की तरह सामाजिक जिम्मेदारी और लोगों को जोड़ने वाले बर्ताव के स्वरूप में जिंदा रखे यही ईश्वर के चरण में नमन एवम इच्छा


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