मेरी ढलती उम्र और आज कल के बच्चे !

मेरी ढलती उम्र और आज कल के बच्चे !

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मै एक कॉलेज में सीनियर लेक्चरर हूँ। मेरे महाविद्यालय की ओर जाते हुए रास्ता जब नेशनल हायवे २२२ से एकदम मुड़ता है तो २०० मीटर कच्चे रास्ते पर मेरा महाविद्यालय है। वहाँ एक दुभाजक है जिसे गाड़ी पर पार करते समय थोड़ी सावधानी बरतनी जरूरी है, कारण यहाँ बड़े गाड़ियों का आना-जाना ज्यादा है, कई लड़के लड़कियों का फिसलना, गिरना चोट, खरोच यहाँ आम बात है। शायद अगले पच्चास वर्ष बाद यहाँ एक फ्लाई ओवर हो जाएगा। मगर इंसान आदत का आदि है। 
तो गहन मसला ये नहीं है...
मसला है मेरी बढती उम्र।

पहले जैसा मेरे अन्दर का मचलता खून अब शांत होता हुआ मुझे ही महसूस होता है। आज ४७ की उम्र के ठीक बीस साल जब मै पीछे मुड़कर देखता हूँ, तो २७ वाला मै इस मोड़ पर कुछ ऐसा बर्ताव कर जाता था, मानो जैसे मै ट्राफिक पुलिस हूँ। कार्य होता था, महाविद्यालय के बहार भी युवकों को सुधारने की कोशिश। आज के युवक, जो इस मोड़ से जाते है अपने बाइक पर, बड़ी तेजी से घूमेंगे, तीन-तीन सवार, अभी तो चार भी, कोई लड़की अगर सामने जा रही हो तो ये बन गये धुम वाले हृतिक रौशन , तेज गाड़ी चलाकर, या बहुत जोर से हॉर्न बजा कर अपनी मुर्खता, जिसके चलते उन्हें लगता है की ये उनका है "शौर्य" प्रदर्शित करेंगे। २७ की उम्र में मैं, उन्हें वही रोककर, झगड़ा कर, डांट फटकार कर, उनका आईडी कार्ड चेक/जप्त कर, अपने कक्ष बुला कर उन्हें एक लंबा लेक्चर दिए बिना नहीं रहता था।

अब थकावट सी महसूस होती है जब इतने बरस बाद, ४७ को भी यही सीन फिर से बार-बार देखना पड़ता हैै सिर्फ बच्चे नए हैं, और एक ख़ास बात, हर साल ये युवक मेरे लिए छोटे-छोटे होते जा रहे हैं, और स्वाभाविक है की जितने छोटे होंगे उतने ज्यादा शरारती भी। लड़कियां भी उन लड़कों से भी छोटी और पगली हो गयी है। अनेकों बार तो मैंने लड़कों की इन बेवक़ूफ़ भरी अदाओं पर लड़कियों को अपनी सहेलियों के साथ चुपके हंसते मुस्कुराते भी देखा है, और नतीजा ये की बाइक का अक्सिलरेटर और हॉर्न के ध्वनि में अड्रेलिन मिल मेरे कान के पर्दों के फटने की नौबत आ जाती है, अब इन लड़कियों का पूछो तो कई सारी लड़कियां मेरे स्कूल के वर्गमित्र की पुत्रियाँ भी है, याने मान लो मेरे ही बेटियाँ, तो इनके इस ख़ुशी पर थोड़ा 'पार्शियल' होना मेरा धर्म है। पर मसला है इन भ्रमराते हुए "फ़ास्ट एंड इडियट" तेज गाड़ी सवार युवकों का जिनके गाड़ी के पीछे 'दादा' 'अन्ना' 'भाऊ' इत्यादी विशेषण व विश्लेषण लगे होते है।

तो सैकड़ों बार की तरह यही सीन आज फिर दोहराया गया। एक गाड़ी चार लड़के, वही दुभाजक, एक छोटी लड़की साइकल पर डरते सहमते रास्ता पार करने की कोशिश, ये चौकड़ी फुर्र से उड़ चली, मेरे और उस बच्ची के मध्य का रास्ता काटते हुए, लड़की थोड़ी डरी और रास्ते के नीचे हो गयी और चुपचाप पेडल मारती रही। मै, इन द्र्यश्यों से तंग आया हुआ, अपना थका मन लिए, जो ये बोलते रहता है की, "चल छोड़ न यार, क्या हुआ, कुछ भी तो नहीं, बच्चे है, जवानी का आलम है, ये कभी नहीं सुधरेंगे, इतने साल हो गये, सुधरे क्या? क्यों व्यर्थ समय बर्बाद करना इन पर, चल आगे बढ़, क्लास को देरी हो जायेगी, वहाँ भी तो बच्चे इन्तजार कर रहे होते है, उनको भी तो पढ़ाना है। चल जाने दे"। मन मे सुनामी लिए मै उन लड़कों को और उनकी हरकतों को नजर अंदाज कर, मेरी टीवियस गाड़ी आगे बढ़ा लेता हूँ।

२०० मीटर पर मुझे दिखता है ये युवक मेरे ही कॉलेज के गेट में जा चुके है, मन कहता है जाने दो, बच्चे है। मै उस लड़की को देखते हुए आगे जाता हूँ, वो अभी भी अकेले धीरे-धीरे, रास्ते के नीचे से कॉलेज की ओर आ रही है, एकदम ठीक-ठाक। मेरी गाड़ी गेट के अन्दर, ये चार उतर चुके है और एक अपनी जेब से कंघी निकाल गाड़ी  के आईने में अपने बाल सवार रहा है। मै चारों की ओर देखता हूँ, गाड़ी पार्क करने जगह ही नहीं है। इन चारों के गाड़ी के बाजू ही सिर्फ जगह है। मै सोचता हूँ जाने दे, गाड़ी लगा और चुप-चाप आगे हो ले। जब नया लगा था १९९३ में तब भी ऐसा सोचता था मगर थोड़ा डरा सहमा होने के कारण। आज कारण अलग है, बच्चे छोटे दीखते है, अपने बेटे जैसे। सोचता हूँ सीधा निकल जाऊं। मैं गाड़ी लगाता हूँ, ये चारों लंगूर अभी भी सवारने में लगे है, सबकी पीठ पर बैग लटके है और वे अपनी ही दुनिया में मस्त, कौन आ रहा है कौन जा रहा है इन चीजों से बेफिक्र, बस नज़र सिर्फ आती-जाती लड़कियों पर।

मै दृढ़ निश्चय कर चुका हूँ कुछ नहीं बोलूंगा, कुछ नहीं करूंगा, जैसे ही मै इनके करीब आता हूँ, तो मेरी नज़र मेरे ही कलाई पर लगे घड़ी पर पड़ती है, स्वाभाव है मेरा समय देखते रहना, क्लास पर जो जाना होता है, पता चलता है की अभी दस मिनट बाकी है, अचानक दस मिनट के लिए, मैं बीस साल पीछे चला जाता हूँ, ये सोचकर की यार आखिर ये मेरे बेटे जैसे ही तो है ना, फिर चुप कैसे बैठूं, इनकी माँ इनके बारे में इस पल क्या सोच रही होंगी, आपका लड़का कहाँ है ऐसा पूछे तो वह यही कहेगी ना की कोलेज में पढ़ने, लिखने गया है, कितना झूटी होंगी वह। और अचानक मैं उसकी कंघी उसके हाथ से झटके के साथ हड़प कर के पूछता हूँ 

"कौन से क्लास के हो रे तुम?" 
"ओss!कंघी वापस दे दो"
"आई कार्ड निकालो रे तुम सारे!"
"ओ तुम कौन हो पूछनेवाले"
"आई कार्ड निकाल बोला ना चुप-चाप"
"अबे!वो यहाँ के सर है" 

है की नाही तुम्हारे पास कार्ड, मुझे शक है की आप लोग बहार के हो और न की इस कॉलेज के"
"हम इसी कोलेज के हैं सर" 
"फिर निकाल ना कार्ड कौन सी कक्षा?"
"बारावीे"
"अच्छा भांगे सरके विद्यार्थी हो क्या?"
"बता दूं तुम्हारे सर को की कैसी गाड़ी चलाते हो, लाइसेंस भी है क्या रे बेटों तुम्हारे पास??" 

"देखिये सर कार्ड्स हैं हमारे पास"

"कौन से कानून के आधार पर चार-चार सवार हो कर गाड़ी चला रहे थे रे ??"

"सॉरी सर!!"
"इधर लाओ सारे ID कार्ड्स और हाँ माइक्रोबायोलॉजी डिपार्टमेंट में दस बजे आकर ले जाना इन्हें"
एक सन्नाटा और फिर से मै 
"पिताजी क्या करते ही आप लोगों के ? बताओ खामोश क्यों हो, शर्म आती है क्या बताने में ..! "

फिर वही पुरानी कहानी। फर्क इतना है की अब दस में से आठ केस में इनके पिताजी मेरे पहचान के होते है, बचे दो इस बहाने हो जाते है, उनके पूरे अधिकार बाकायदा मुझे सौंप देते है। बस इन युवकों के लिए इतना ही काफी है। दस बजे अब ये आयेंगे अपना आय कार्ड लेने, मेरा आधा घंटा भाषण सुनेंगे। अपने पिताजी की पहचान की वजह से पहले-पहले ये मुझसे डरेंगे, बाद में आने वाले दिनों में जब पता चलेगा की मैंने इनके पिताजी को कभी कुछ बताया ही नहीं तो ये मुझे "गुड मार्निंग, गुड इवनिंग" विश करेंगे, बाद में सिर्फ हसेंगे और जीवन भर के लिए मेरे मित्र बन जायेंगे।

बच्चे है आखिर !

कई माता-पिताओं को मैंने कहते सूना है "सर आप ही इसको सुधार दो, हमारी बात तो ये १ मिनट के लिए भी सुनता ही नहीं है" 
मै मन में सोचता हूँ "मगर ये हमारी रोज घंटो सुनता है, मानता है, इज्जत देता है और दूसरों को देना सीखता है" और यही कारण है की सरकार इतनी सारी पगार हमें देती है, आखिर वो सिर्फ सिलेबस पढ़ाने हेतु नहीं है।

 


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