बाहर वाला कमरा

बाहर वाला कमरा

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जब मैं वहाँ सबसे पहली बार आया था तो, मुख्यद्वार के पास सटे हुए छोटे से कमरे में से खरकसी आवाज़ में एक बड़बड़ाहट सुनी थी. कुछ  अस्फुट सी आवाज़...  अभी थोड़ी देर पहले वहीं, उस कमरे से पतले-दुबले, गहरे सांवले रंग वाले, नाटे कद के उन वृद्ध को कुछ बोलते हुए निकलते देखा, फिर वे आंगन में चलने लगे थे... वे कुछ बोल भी रहे थे, जो  दूरी के कारण मेरे लिए अस्पष्ट था. फिर  भी मेरी आँखें बार बार उधर ही देखने लगती थीं. मैं निर्विकार सा बस देख रहा था...

मेरी मेज़बान ने आकर सोफे बैठते हुए बाहर देखा और इसके बाद होने वाले घटनाक्रम के कारण तुरंत मुझे कुछ असहज-सा बोध हुआ ! दरअसल किसी के यहाँ औपचारिक रूप से गए हुए व्यक्ति के सामने अचानक उस घर की किन्हीं निजता का एब्सर्ड तरीके से उपस्थित हो जाना थोड़ा असहज करता ही है...

चूँकि उन्हें मैं पहली बार देख रहा था मुझे उनके बारे में अभी कुछ भी नहीं पता था... इसलिए ऐसा जब औचक हुआ तो, मैं उनको दुबारा गौर से देखने लगा ! धँसी आँखों वाले चेहरे पर बहुत कम झुर्रियाँ थीं... छोटे छोटे बाल, सफ़ेद नहीं हुए पूरी तरह से. आँखों पर इस उम्र में भी चश्मा नहीं...कुछ गंदले से धोती-बनियान में. हाथ में लकड़ी... एक कदम के बाद अगला कदम इत्मिनान से रखते हुए... और मैं समझ नहीं पा रहा था कि आखिर उस अति सामान्य से दिखते बूढ़े में कौन सी ऐसी असहनीय बात है, कि उनकी अधेड़ बहू ने उनसे चिल्लाकर कहा, "वहीं रहिये आप... अपने कमरे में रहिये... कमरे से मत निकलिए... वरना बाहर से बंद कर दूँगी." और तेजी से प्रतिक्रिया करती हुई अपने कमरे का दरवाजा बंदकर सांकल चढ़ा दी, "कमरा बंद कर लो नहीं तो परेशान करने यहाँ आ जायेंगे. जिंदगी हराम कर रखी है !..." उन्होंने बड़बड़ाने की जगह एकदम स्पष्ट ही मुझसे कहा.

मैं उनके साथ बरामदे से भीतर, पहले कमरे में बैठा था. अधखुले दरवाजे की फांक से बाहर वृद्ध को बगीचे में चहलकदमी  करते अब तक देख रहा था, वे धीरे धीरे चलते हुए अहाते के नज़दीक आ गए थे और तभी श्रीमती कनक राय ने उन्हें डपटा था. दरवाजा बंद होने के बाद मैंने अनुमान किया कि वे वहीं खड़े थे. करीब ही. वहाँ से अब उनकी खोखल में बजती जैसी आवाज़ आ रही थी... “ये बर्तन और कुर्सियाँ बाहर क्यों पड़ी हैं...? ये सब अंदर करवाओ. किसी को होश नहीं रहता है... लुटा दो घर को सब ! चोर सब ले जाएगा... एदेर कौनो चिंता नेई !”

श्रीमती कनक राय हमारे महाविद्यालय की पूर्व प्रिंसिपल थी. निजी कारणों से उन्होंने कुछ साल पहले नौकरी से इस्तीफा दे दिया था. घोषित तौर पर वे इसका कारण यह बताती थीं कि बच्चे छोटे थे और उनकी देखभाल के लिये उन्होंने अपने कैरियर को स्थगित कर दिया. लेकिन मैं अपने अनुभवों और उनके पति, जो हमारे एक घनिष्ठ परिचित के मित्र और कई वर्षों से पड़ोसी रहे, की बातों से यह समझ गया हूँ, कि असल मसला यह था कि श्रीमती राय महाविद्यालय के घोर मर्दवादी तंत्र और दबावों से तंग होकर नौकरी से हट गयीं... राय बाबू बातचीत में कॉलेज का ज़िक्र आने पर हमेशा बोलते, ‘वहाँ काम करना पॉसिबल नहीं है. लेडिज के लिये तो और मुश्किल...’ परिचित के यहाँ जाने पर अक्सर शाम को श्रीमती कनक और उनके पति से मुलाकातें होती रहती थीं और उनसे भी एक प्रकार से औपचारिकता का संबंध घुलकर मित्रवत संबंध में बदल गया था. श्रीमती कनक बहुत शांत लगती हुई कहती थीं, ‘देवेश, वहाँ दो चार लोग हैं ना, आज भी हैं, वे कभी नहीं चाहते कि आप खुलकर काम करें. कोई फैसला लें... बस उनके लिये रबर स्टैम्प बनके रहो. मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ...’ 

फिलहाल उस शाम मैं उनसे अपने दफ्तरी काम के सिलसिले में मिलने उनके इस घर में पहली दफे आया था. मुझे एक फ़ाइल तैयार करने के लिये कुछ पुराने रिकार्डों की बाबत उनसे जानकारी लेनी थी. शाम हो चुकी थी और बाहर नीरवता पसर चुकी थी. यों भी इस तरफ के इलाके में हर वक्त एक बोसीदा सा सन्नाटा भरा रहता है.

थोड़ी देर में मुझे यहाँ इस घर के भीतर ही अजीब सा बवाल दिखने लगा. जिसे मैं व्यक्ति और व्यक्ति के बीच का, उम्र या सोच का टकराव समझ सकता था. निहायत घरेलू होने के बावजूद सार्वजनिक !

"आप तो पहली बार आये हैं... क्वाटर्स में भी तो आप कभी अंदर नहीं आये थे. रुक जाईये और देखिये इस नीच आदमी की नौटंकी." वे तंग हो जाने की हद तक दर्द और घृणा अपनी आवाज़ में भर कर बोल रही थीं. मेरे पूछे बिना ही वे सबकुछ कह देने को जैसे किसी पूर्वाग्रह के प्रभाव में हों, "किसी को आने नहीं देते घर के अंदर. अभी आप से आके पूछेंगे, किस काम से आये हैं ? क्यों आये हैं ? चलो जाओ... निकलो, हमको गेट बंद करना है... इनके यही व्यवहार से कोई हमारे घर आता नहीं. आप समझ सकते हैं, हम लोगों को इतना शर्मिन्दा होना पड़ता है ! यह कोई आज हो रहा है, ऐसा नहीं. हमेशा से ऐसा ही है इनका नेचर. पहले इनके दोस्त आते थे, तो उनके साथ भी... फिर सबने आना छोड़ दिया. कोई आखिर बर्दास्त करेगा ?"

मैं उन वयोवृद्ध को, जिन्हें उस दिन पहली बार देख रहा था, समझने की कोशिश कर रहा था. मगर श्रीमती कनक जी की दलीलें बड़ी मजबूती से मुझे अपनी कोई राय कायम करने नहीं दे रही थीं, बल्कि वो जो कह रही थीं, उस नज़रिए से देखने के लिये प्रेरित कर रही थीं. मुझे लगा, कुछ अलग सा व्यक्ति है ये वृद्ध, यह तो सही लगता है.

"तानाशाही करते हैं और क्या? जिंदगी भर घर में अपना चलाया. जो बोलेंगे, वही होगा. सब पर अपना मर्ज़ी चलाया. आज इस उम्र में भी जो मन में आता है, करते हैं." श्रीमती कनक मुझ पर अपना परसेप्शन थोप रही थीं. थोप रही थीं, ऐसा इसलिए कहना पड़ रहा है क्योंकि मैं जो भी सोच रहा था, उसपर उनका लगातार कहना एक वज़न की तरह लुढकता हुआ उसे सपाट किए जा रहा था ! हो सकता है, तानाशाह रहे हों... पर अब तो यानि एक अस्सी - बयासी के बूढ़े में और बच्चे में कोई फ़र्क नहीं वाला मामला है. यदि उनका स्वभाव जिंदगी भर वैसा रहा तो अब क्या बदलेगा ! हर आदमी एक दूसरे से अलग होता ही है. उम्रदार लोग तो जैसे दुर्बोध ही हो जाते हैं !  क्यों ? क्या सारे वरिष्ठ नागरिक सनकी और ऊट –पटांग हो जाते हैं... कभी मैं भी ऐसा बेतुका और उल-जुलूल हो जाऊँगा... इतना कि मेरे आसपास के लोग मेरा मजाक उड़ाएं, मुझसे नफरत करें, मुझसे पिंड छुड़ाना चाहें ?

"सनकी हैं... सनकी नहीं, खब्ती...एकदम बाजे मानुष !" श्रीमती राय की चिढ़ भारी आवाज़ ने मेरी सोच पर कैंची चला दी...

श्रीमती कनक की बड़ी ननद अपने ससुराल से आई हुई थीं. कमरे में आकर चाय रखने के बाद आले के कपड़ों को सरियाते हुए उन्होंने ने भी अपनी भावज की स्थिति को समर्थित किया. "सब मेरी छोटी बहन का किया धरा है, समझते हैं ? जब भी आती है, दिखावे के लिये बाबा से कहती है... आप मेरे साथ चलिए. यहाँ आपको देखने वाला कौन है ! लेकिन लेके जायेगी नहीं अपने साथ. बस बाबा को घुमेड़ के चली जाती है. बौदी जितना सह के ये सब, माने आदमी और घर-द्वार संभाल रही हैं, उतना कोई करेगा ? मैं तो आ ही नहीं पाती. तीन साल के बाद मायके का मुँह देख रही हूँ."

पता चला, छोटी ननद साल-अधसाल में आती रहती है. हर चीज़ और बात को लेकर नाक-भौं चढ़ाती है. बाबा के कमरे में घुसकर दोपहर भर खुस-फुस करती रही है. नाहक जलने-जलाने वाली बात करती है. किस तरह घर में शांति भंग हो जाए, किस तरह बाबा भाभी पर और ज्यादा बौखलाते-झौंखते रहें... किस तरह तमाशा और चटखारा हो, श्रीमती कनक को लापरवाह और अड़ियल बहू सिद्ध कर सके, यही उसके आने का मोटिव रहता है ! बाबा के प्रति झूठ-मूठ की तरफ़दारी, दिखावटी तीमारदारी और ढकोसलाई चिंता दरअसल माहौल को और भी खराब कर देती है.

बड़ी ननद ने राय व्यक्त किया और श्रीमती कनक के चेहरे पर उदासी का भार चढ़ा रहा था...  

वृद्ध को घर की एक एक चीज की फिक्र थी... बगीचे में रखीं पाँच-छह: फाइबर की कुर्सियां उठाकर अंदर बरामदे में रख चुके थे... इस उम्र में ! दरवाजा खुला तो उनकी इस कार्रवाई का पता चला. घड़ी में साढ़े सात बजे थे शाम के, और मुख्य सड़क से थोड़ा ही अंदर का यह इलाका शांति और अँधेरे में डूब चुका था. शायद यह सन्नाटा और एकांत बूढों को अत्यधिक शंकालू और भीरु बना देता है. बूढों को बुढ़ापे में सहेजने की प्रवृति बढ़ जाती है. मैंने देखा कमरे से निकल कर बहू ने अपने श्वसुर को डांटते हुए उनको यह सब करने से मना किया और दबाव देकर ‘अपने कमरे’ में भेज दिया है...

वृद्ध की बड़ी बेटी ने रोटियाँ बनाने के लिये किचन में जाने से पहले पूछा, “रोटियाँ बना दूँ  बौदी (भाभी) ?”

"हाँ, वे जल्दी खा लेते हैं, खाकर सो जांय तो अच्छा है.”

"कैसी रोटियाँ बनाऊं ?”

"पतली बनायिएगा... और कुछ बनाने की जरूरत नहीं. दोपहर की दाल  बची है. देखिये फ्रिज में. थोड़ा गर्म करके दे दीजिए.” श्रीमती कनक ने मेरी ओर देखकर कहा, "वैसे ही दिन में मेहमान आये थे. बेटे की शादी की बात चल रही है. इतना कुछ खाया है... मछली, मिठाई...”

श्रीमति कनक राय, जितनी देर मैं चाय पीता रहा, बोलती रहीं, “पेट खराब हो जायेगा, तो मुसीबत. ऐसे ही इतना सताते हैं.”

घर में सिर्फ़ वे तीन लोग, यानि दो अधेड़ महिलाएं और वह वृद्ध थे. परिवार के बाकि सदस्य किसी कार्यक्रम में शहर से बाहर गए थे. गली में कुत्तों के भूंकने की आवाजें आयीं. बाहर गेट के पास निर्वासित बूढ़े ने हांक लगाई, “ देख रे कि होलो ?”

बहु ने कमरे से ही चीखकर जवाब दिया...."कुछ नहीं हुआ है, कहीं आग नहीं लगी है. आप खाके सो जाईये ना...”

वे सो कैसे सकते थे...! मैं, यानि एक बाहर वाला उनके घर के अंदर था और एक बाहरी आदमी के रहते उन्हें चैन कैसे आता. श्रीमती कनक ने कहा. मुझे भी लगा, बहुत खब्ती हैं. दसेक मिनट बाद हम बातचीत में मशगुल थे कि बाहर से उनकी आवाज़ आई... “गेट पर गाड़ी (मोटरबाइक) किसका है ? अंदर क्यों नहीं किया है ? अंदर कर लो, चोर ले जायेगा...”

"मैंने हैंडिल-लाक किया हुआ है, कुछ नहीं होगा.” मैंने तंग आकर कहा. मगर वे बाहर से चिल्लाते रहे कि गाड़ी अंदर कर लो. हम उन्हें नज़रंदाज़ करते रहे, लेकिन श्रीमती कनक मुझसे आख़िरकार बोली, “जाइये, अंदर कर दीजिए. नहीं तो बैठेने नहीं देगा.”

यह कोई पुश्तैनी मकान नहीं था, इस कस्बे में आए... अपनी मेहनत से अपना एक 'नाम' खड़ा किया... एक ब्रांड जैसे ! घर बनाया. होमियोपैथिक के मशहूर बैद्य थे वे. कस्बे ही क्या, दूर देहातों, शहरों से लोग आते. होमिओपैथ में ज्यादा यकीन न रखने वालों को भी उन्हीं के कारण इस चिकित्सा पद्धति पर भरोसा जगा. वे अपने मरीजों से भी सपाट और साफ बात करते थे. पहले पूछते कि रोग कैसे हुआ...? फिर जो जवाब मरीज या उसके घरवाले देते, उसके आधार पर वे उन्हें डाँटने लगते... लेकिन दवा अच्छी देते थे. आम सर्दी-बुखार से लेकर पथरी तक को ठीक किया. श्रीमती राय ने उनसे यह विद्या सीख ली थी और अब खुद भी पार्ट टाइम वैद्यिकी करती थीं... यानि वे अपनी बहू के गुरु भी थे. और इस आमदनी का भी महत्त्व था कि अब उनका सेवानिवृत हो चुका बेटा अपनी पत्नी पर दबाव बनाये रखता था कि वह इस व्यवसाय को नियमित करे. चैम्बर में परामर्श लेने वाला एक भी आदमी बैठा हो तो श्रीमती राय उठ नहीं सकती थीं, चाहे अपना कोई भी काम या प्रोग्राम रद्द करना पड़े...! मैं उनकी चर्चा से, वातावरण से और अपनी आँखों-देखी से महसूस कर रहा था कि वे लाचार नहीं हैं, आज भी नहीं. वे स्वयंभू रहे थे... हमेशा से ! कुछ ऐसी दबंगई थी, उनके अंदर कि घर के सारे सदस्य जिंदगी भर उनके आगे झुकते रहे. ऐसा नहीं है कि उन्होंने किसी को उनकी पसंद का करने से रोका. बस यह घर उनकी सल्तनत रहा. घर में क्या हो, क्या न हो... कौन आए, कौन ना आए... कौन रहे, कौन जाये... सब उनकी मर्ज़ी से तय होता था. बाकि किसने क्या पढ़ाई की, कौन सी नौकरी की, किससे शादी की,  कहाँ रहने गया... इससे उनको कोई मतलब नहीं था. खासकर घर के मर्द सदस्यों के लिये तो उन्होंने कभी नहीं कहा कि ‘लिटमस टेस्ट’ पास करो !

श्रीमती कनक ने अपने श्वसुर की अच्छे से देखभाल की थी. लगातार कर रही थीं. उनके आदेश को हमेशा ही मानती रही हैं, भले ही आधे-पूरे मन से ही... कर्तव्य-निर्वाह टाइप की विवशता से ही... आज भी उनकी देखभाल और संभाल के कारण बंधी रहती हैं. घर और चैम्बर, बस यही है जिंदगी ! श्रीमती कनक बता रही थीं, “इनको शाम को सात बजे रोटी देनी है, तो बस... यह नियम नहीं टूटेगा. चाहे आप कहीं भी हों, कुछ भी अरजेंट काम में हों... इनकी रोटी के लिये घर लौट आना होगा. ये क्या, इनका बेटा भी... जानते हैं, ये लोग ऐसे हैं कि बस हुक्म चला दिया तो उस हुक्म को मानना ही होगा !” यानि श्रीमती राय ने मर्दवादी डोमिनेंस के कारण कॉलेज की नौकरी छोड़ दी, लेकिन वही सिस्टम तो घर में भी काम कर रहा है !

“उस ज़माने की इतनी पढ़ी-लिखी और स्वाबलंबी स्त्री होने के बावजूद परिवेश और परिस्थितियों से भागती रहीं हैं आप...”  मैंने अचानक अनौपचारिक होकर कह दिया.

“क्या करें ?” वे हँसती हुई बोलीं, “सबका ईगो रखना पड़ता है !”

मैं उस दिन के बाद श्रीमती कनक जी के घर दो तीन बार और गया. मैं हर बार अपनी वहाँ  की मौजूदगी का वक्त खुद ही काटने को बेचैन रहता. श्रीमती कनक जी ने पहली मुलाकात में अपने श्वसुर के बारे में मेरे पूर्वाग्रह ऐसे बना दिए थे कि लगता था, ज़रा सी देर हुई तो वे आकर मुझे अपने घर की चौहद्दी से बाहर निकल जाने को कहेंगे. अक्सर मैं, जब शाम को वहाँ गया, वे अपने घर के सामने वाले और पीछे की थोड़ी सी जगह पर चहलकदमी करते हुए दिखे. उनका ध्यान मुझ पर नहीं था. और शायद वे मुझे देख भी लेते तो पहचान जाते, ऐसा मुझे नहीं लगा. मैं चूँकि फोन करके आया होता इसलिए गेट पर ही श्रीमती कनक मेरी अगवानी करती खड़ी मिल जातीं. “आईये...” फिर उनको कोई काम होता तो ड्राइंग रूम में बिठा कर वे "अभी आते हैं, आप बैठिये.” कह कर अंदर कमरे में चली जातीं. मैं सेंटर टेबल पर रखे अखबार और पत्रिकाएँ पलटता. घिसटते हुए पदचापों और लाठी की ठक ठक मेरा ध्यान बाहर बगीचे में चहलकदमी करते वृद्ध पर खींच जाता.

एक दिन वे अपनी लाठी सहित नमूदार हुए.

"आप कौन हैं ?”

मुझे इसी प्रश्न का हमेशा ही पूर्वानुमान था. मैं खड़ा हो गया, “जी, मैं देवेश ...”

"के (कौन) देबू ?”

वे मुझे कोई और समझ रहे थे. उनकी खोडर में गहरी धँसी सी कमज़ोर आँखें सिकुडकर मुझ पर टिकी होतीं.

"नहीं, मैं देवेश कुमार, मैडम के कॉलेज में काम करता हूँ, मतलब, जहाँ मैडम प्रिंसिपल थीं.” मैं अपना परिचय स्पष्ट करता.

वे इसके बाद जो दो बार और मिले, यही सवाल किया. और मैं हर बार, जितनी हमारी मुलाकातें हुईं, उतनी बार अपना नाम स्पष्ट कर चुका था. इसके बाद उनका अगला रूटीन सवाल होता, “क्या काम है ?” और मैं अपने आने का प्रयोजन खुलकर बताता. वे खड़े रहते. मुझे अजीब सा लगता. मैं उनसे दोहरा कर कहता, “बैठिये.” मगर वे जैसे सुनते न हों. खड़े ही रहते लाठी की टेक फर्श पर लगाये. दरवाजे की पास की दीवार के साथ. श्रीमती कनक आ जातीं तो जल उठतीं, “आप फिर इधर आये ! आपको कहा गया है ना कि उधर रहिये अपने कमरे में. काहे परेशान होते हैं, और हमलोगों को करते हैं. बाप रे ये आदमी तो पागल करके छोड़ेगा.”

मुझे बिलकुल खराब सा लगता. वे अपनी बहु से लड़ने लगते... जैसे, पिछली बार मेरे बैठते ना बैठते श्रीमती कनक छत की तरफ जाने वाली अंदरूनी सीढ़ियों से ऊपर जाकर उनको किसी बात पर मना करने लगीं तो वे चिल्ला कर धीरे धीरे उतरने लगे, “आग लगा दो, शेष कोरे फेल शोब... ! कितना बोलने पर भी इस घर में कोई नहीं सुनता... कोई नहीं सुनेगा. तुम क्या समझती हो हमको ? आमाके कि बूझिस ? तोमार भोय देखाले, भोय खाबो ? जो भी चीज है, उसकी कोई कद्र नहीं ! कुछ बोला तो चंडी रूप दिखती है हमको... फेंक दो हमको, हटा दो... खाली उधर जाइए... इधर मत रहिये... एई घोर आमार... आमार घोरे आमी निषिद्ध ! वा रे सोंसार...”

“भालो... तुमी भालो... आमी खाराब... ! तोमार शोब कोथा भालो, आमार शोब खाराब ! केने चापले एई छाते... कि आछे जे तुमी ना देखले आमी नोष्टो कोरे दिच्छी ? बोलो, बोलो ? नेमे जाओ... जाओ...”

वे चिल्लाते हुए, बकते हुए, कांपते हुए सिर और पैर... वे डगमगाकर कमरा, फिर अहाता पार कर जाने लगे.

श्रीमती कनक आकर बैठीं  तो कुछ मिनट कुछ नहीं बोलीं. फिर उनकी आवाज़ उनके अंदर की  झुँझलाहट को साफ़ करती हुई मुझे सुनाई पड़ी, “बोलो, ये  उमर है, ये हालात है... अकेले छत पर चढ़ जाएँगे. कुछ हो गया तो इनका बेटा हमपर दोष लगायेगा, तुम मेरे बाप को मार डाली...! क्या चीज है जो मेरे ध्यान ना देने से नष्ट हुई जा रही है ? ओफ़्फ़ !”

श्रीमती कनक और उनके श्वसुर को देखते-सुनते मुझे लगने लगा था, कि वे कमजोर और बेतुके हो चुके हैं. उनका अस्तित्व लगभग अतार्किक... वे क्यों हैं ? क्या बचा रहे हैं ? क्या सनक है ! वे अब उस स्थिति में पहुँच चुके हैं कि उनका होना ना होना घर और श्रीमती कनक के लिये कोई अर्थ नहीं रखता, सिर्फ़ उनके बेटे के लिये रखता है. श्रीमती कनक और घर ने उन्हें पूरी तरह से खारिज़ कर दिया है... आज उनका वो खौफ नहीं रहा. कुछ भी कहेंगे, चिल्लायेंगे , मगर कर कुछ नहीं पाएंगे. आखिर बूढ़े शेर की आदतें बदलती नहीं... ये बूढ़े हो चुके थे. बस मुँह का ज़ोर बरकरार था. श्रीमती कनक जी को उनपर हावी होते देख मुझे ऐसा लगता. जब उम्र के साथ शरीर के सब अंग कमजोर होते चले जाते हैं, सिर्फ़ ये जुबान ही आखिर तक मोर्चा संभाले रहती है...! कुछ ऐसी आवाजें उनके मुँह से निकलतीं, जिसका अर्थ मुझे तो नहीं ही समझ में आता, शायद कनक जी को भी नहीं आता होगा. मगर वे इस सब को अपनी अवमानना समझतीं और ज्यादा तेज आवाज़ में अपने श्वसुर को कमरे से निकाल देने को उद्दत हो उठतीं. मुझे लगता, शायद साथ रहने से वे उनकी बातों को ही नहीं, इन अस्फुट स्वरों, ध्वनियों का अर्थ भी बूझ लेती हैं !

वे बाहर टहलते हुए, जिसे श्रीमती राय पहरा देना कहती थीं, लगातार कुछ बोलते... अपने आप से या हवा में, या किसी  काल्पनिक श्रोता पर अपना भरोसा रखते हुए. मैंने देखा है वृद्धों को बोलने, लगातार बोलने की भयानक लत होती है. कहाँ, कहाँ की बातें... पुराने दिनों-लोगों के किस्से उनके जेहन के पर्दे में उपस्थित होते चले जाते हैं, और उनकी जुबान उन्हें बयान करने को अनवरत् क्रियाशील रहती है. सामने वाला जो उकताहट की हद पार कर चुका होता है, जाल में फंसी मछली की तरह छटपटाता है, मगर बुड्ढे अपनी कहानी सुनाते जाते हैं ! लेकिन वे चालाक किस्सागो तो नहीं होते, जो श्रोता को वशीभूत कर लें. वे सपाट बयानी में बोलते चले जाते हैं, जो सामने वाले को अपनी अप्रासंगिकता या दोहराव के बूते उबा डालती है ! अक्सर वे बात करते और जिसके बारे में बात करते, कहते आप तो (उस महाशय को) जानते होंगे... फिर उस शख्स के बारे में पूरा परिचयात्मक ब्यौरा, उसके वंश-वृक्ष के डाल-पात का ब्यौरा और उनसे जुड़ीं घटनाओं का ब्यौरा तफसील से कहना शुरू...!

एक बार एक सीधी मुलाकात में शायद मुझे भी इस स्थिति से गुज़रना पड़ता... मैं बैठा था और अखबार उठाके खोलने ही जा रहा था कि वे दरवाजा धीरे से धकेल कर भीतर आ गए...

उन्होंने खड़े खड़े पूछा, “श्यामा बाबू को जानते हैं ? श्याम चन्द्रो मंडल...”

मैं इस नाम के किसी व्यक्ति को याद करने लगा जो इस कस्बे का हो, मेरे संपर्क या परिचितों में से हो या जिसका नाम यह हो सकता हो. मुझे याद नहीं आ रहा, मगर वे निश्चित ही एक किरदार की सक्रिय सजीव स्मृतियों के साथ उपस्थित हुए थे. वे बैठे नहीं, और मुझे उस व्यक्ति का पूरा परिचय देने लगे. मुझे सिर्फ़ हूँ, हाँ करना था. वरना कहीं गुस्सा गए तो उखड़ कर कह सकते थे, “चलो बाहर निकलो... तुम कौन है ? कोई काम फाम नहीं. किस इरादे से आया है बोलो....”

मैं घिरा हुआ महसूस कर रहा था कि तभी श्रीमती कनक आ गयीं और उनको वहाँ देखते ही मुँह बिगाड़ कर बोलीं, "आप फिर चले आये. एक जगह पाँव नहीं टिकता आपका ! चलिए जाइये अपने कमरे में.”

श्रीमती कनक ने लगभग उन्हें धकेलते हुए कमरे से बाहर किया और बांह पकड़ कर उनके उस दड़बेनुमा कोठरी में पहुँचा आई. श्रीमती कनक सिर्फ़ उन्हें डराने धमकाने के लिये नहीं, सचमुच उन्हें उनके कमरे में, यानि बाहर वाले कमरे में बंद कर देती थीं. और उन वृद्ध को यह विश्वास हो गया था कि बहू ऐसा करेगी ही. मगर वे बार बार अपने उस कमरे से निकलते और अपने मन की करने लगते... मैं इन कुछेक मुलाकातों में इस सबका अभ्यस्त हो गया था. वह गेट के पास वाला कमरा उनकी 'हद' था, एक अघोषित कैद ! नजरबंदी...

उस अलग थलग से गेट के नजदीक वाले गुमटी जैसे कमरे के बारे में श्रीमती कनक जी से पूछा तो पाया कि उनके बड़े बेटे की जल्द शादी होने वाली है. नई बहू आएगी तो कहाँ रहेगी ? बेटा बहू के लिये बाबूजी का कमरा झाड़-पोंछ कर तैयार करवा दिया है, और इनको वहाँ बाहर वाला वह कमरा यानि संभ्रांत शब्दों में 'आउट हाउस' दे दिया है. कोई तकलीफ नहीं. पहले उसी कमरे में अपनी डिस्पेंसरी चलाते थे. रहें वहीं और हमारी जान छोड़ें. यहाँ भीतर रहेंगे तो किट-किट, किट-किट... बहू से भी पता नहीं क्या उल्टा-पुल्टा बक देंगे... फिर वे बहु के बारे में मोटी मोटी सूचनाएँ देने लगतीं, सॉफ्टवेयर इंजीनियर बेटे के लिये चुनी हुई लड़की भी बहुत पढ़ी लिखी है. उसने भी  इंजीनियरिंग की है. अभी शादी के बाद एक एंट्रेस परीक्षा में बैठेगी... गृह-प्रवेश बाद में होगा. आदित्यपुर में बहुत बड़ा प्लाट था उसके पिता का, जिसे बेचने के बाद जब वहाँ अपार्टमेंट्स बने तो बिल्डर ने डील के मुताबिक सभी बेटियों के नाम से एक एक फ्लैट दे दिया. यानि बहू का भी अपना फ़्लैट है ! तो इस भावी फ़्लैट-शुदा बहू के आने से पहले ही दादा-ससुर घर-बदर हो चुके हैं !

“मगर कहाँ ! ओ बाबा... उस कमरे में भी थिर रहते कहाँ हैं ? बार बार इधर घुस आयेंगे और ये-वो बोलने, करने लगते हैं... देख रहे हैं तो.” श्रीमती कनक के चेहरे पर परेशानी की पराकाष्ठा उभर आई.

मुझे अपने बचपन और बाद में भी देखे कई वृद्ध याद आने लगे...

हमारे साथ वाले क्वार्टर में रहने वाली बूढी दादी के साथ भी ऐसा चलता था. सिर को घुटनों के बीच घुसाये दीवार से सट कर बैठी रहती. उसके पास एक भगौना पड़ा रहता था, जिसमें सूखी बासी रोटियाँ पड़ी रहतीं, जिसमें चींटे लगे रहते...सब्जी का मुझे पता नहीं क्योंकि कभी गौर से देखा नहीं. बल्कि मैंने जब भी देखा उस भगौने तक दीवार से आता चीटों का रेला देखा... वृद्धा जब भी मुझे या किसी को देखती, यानि अपने घरवालों को छोड़कर, तो बकने लगतीं...'मार डालेंगे ये... जानवर जैसा फेंक दिया है...’ उसकी बड़बड़ाहट को अनसुना करते हुए हम गुजरते रहते... लड़कपन की उस उम्र में कुछ बुरा लगने  से अधिक कोई प्रतिक्रिया होती नहीं थी, सो... !  एक दिन वह बुढिया उसी जगह मर गयी. चींटे उसकी लाश तक एक कतार बांधे हुए थे...

हमारे पुराने मोहल्ले में एक बूढ़े का भी आजकल ऐसा ही है. उसका लड़का उससे और उसकी बूढी माँ से, जो कुछ महीनों पहले मर गयी, सड़क पर  मरखौने कुत्ते सा झगड़ा करता और थप्पड़ मारता... और वह बुढा स्तब्ध, चोटिल... अकबक उसका मुँह देखता रहता... बूढी के मरने के बाद, कई दिन वह बाहर सड़क पर या घर के सामने जमीन पर पड़ा रहता है... भीख मानने लगता है... और माँगना 'नमस्ते बेटा', 'नमस्ते बेटी' से शुरू होता... यह बताने की जरुरत नहीं कि हर दरवाजे से बेतरह खदेड़ा जाता... क्योंकि वह ‘दारू पीने के लिये मांग रहा है’ यह आमधारणा सिद्ध है ! स्क्राउंजर ! ...अभी कुछ दिन पहले उसे हाथों में चप्पल पहने सड़क पर घसीट कर कहीं से लौटते देखा था.

वृद्ध लाठी टेककर खड़े दरवाजे से भीतर कमरे में झाँक रहे थे. शायद पूरी अलर्ट बरतते हुए. शायद बहू के देख लेने और उसके बाद गरियाने, धकियाने, खींचने के उपद्रव से बचने के लिये, बिना कुछ आवाज़ किए पता नहीं कब से अधखुले दरवाजे पर खड़े थे...

“दादू !” मैं उन्हें देखकर उठा था और वे मुझे अपनी जानी-पहचानी अपरिचित नजरों से ताक रहे थे...

भीतर वाले कमरे से अचानक श्रीमती कनक मेरे लिये चाय की ट्रे लेकर आती हुईं बोलीं, “देवेश, वह पैरासाईट आदमी आ जाएगा तो चिल्लाएगा. आप दरवाजा अंदर से लगा के रखिये...”

मैंने आवाज़ की तरफ देखकर फिर दरवाजे की ओर देखा तो, वे बिना आवाज़ किए जा चुके थे.

यकीनन अपने उस बाहर वाले कमरे की ओर जा रहे होंगे, आहिस्ता-आहिस्ता...   

यह मेरी उनसे पिछली और आखिरी मुलाकात थी...

अचानक उस शाम बारीश होने लगी थी. हम बाइक से उतरने तक बहुत सा भीग चुके थे. श्रीमती कनक को आज मेरे साथ थोड़ी देर के लिये कॉलेज जाना पड़ गया था. आज हमारा काम पूरा हो गया था और उन्हें मैं ही घर छोड़ने आया था. वे उतरकर कर अंदर अहाते में चली गयीं और वहीं से उनकी जोर से बोलने की आवाज़ आई, “देवेश ! वे नहीं लौटे हैं...दरवाजा लॉक् है ! चाभी नहीं है मेरे पास.”

मैं बाइक गेट के अंदर कर भीतर एक ओर चाहरदीवारी से लगाकर खड़ा कर उनकी ओर चलने को हुआ कि गेट के सामने वाली उस कोठरी का अधखुला दरवाजा पूरी तरह खुल गया. वे सिर बाहर निकालकर बोल रहे थे, “देबू...! अंदर आ जाओ. आ जाओ...!”

फिर उन्होंने आवाज़ दी थी, “बऊ माँ ! एसो... चोले ऐसो एखाने !”

मैंने देखा, श्रीमति कनक हाथ में पकड़े फाइल से सिर भींगने से बचाती हुई बाहर वाले कमरे की ओर तेजी से आ रही थीं.  


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