बाबू चंदन
बाबू चंदन
एक सामाजिक व मनोरंजक किस्म का व्यंग्यात्मक लहजे में आपके सामने पेश होने जा रही है "बाबू चंदन"। यह छोटी सी कहानी है चन्दन की जिंदगी की किस्सों के साथ-साथ उस मोड़ पर पहुँचती है जहाँ एक पल के लिए चंदन ठगा सा रह जाता है जिसकी नयी-नवेली शादी हुई है। लेकिन कहते हैं ना किस्मत का पहिया हमेशा घूमता है, तो आगे क्या होता है? यह जानने के लिए पूरा पढ़े "बाबू चंदन"।
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भाग-1 (बाबू के बचपन का किस्सा)
चन्दन बाहर से कमाकर दो साल पर घर लौटा। पहली बार घर से भागकर कमाने गया था। उसने ठान ली थी वह घर कभी नहीं लौटेगा, चाहे कुछ भी हो जाये। अपने इसी जिद पर तो इतने दिन शहर में टिक सका नहीं तो घर से कभी दूर गया ही नहीं था।
एक बार जब वह 14 साल का था तो अपने माँ के साथ किसी शादी में जाना हुआ। पहले दिन तो खूब आराम से खेला-कूदा और दूसरे दिन तो ऐसा हो गया कि वह किसी से ना कुछ बोलता ना कुछ खाता। "का हुआ है?,,, का चाही?.... अरे! कुछ त बोलऽअ?" बहुत पूछा गया पर कुछ नहीं बोला। बल्कि रोने लगा। जो भी मिठाइयाँ शादी के लिए बन रही थी, सबमें से सामने लाकर रख दिया गया फिर भी रोना शान्त न हुआ। सारे रिश्तेदार और घर के सब लोग मनाने में लगे थे, लेकिन बाबू तो ऐसे थे मानने को तैयार ही न थे। अन्त में थक-हारकर सबने वहाँ से किनारा कर लिया। मिठाइयाँ भी उनके आगे से हटाया जाने लगा तब वह झपटकर मिठाइयों पर टूट पड़े और सारा एक ही बार में खत्म कर डाला, जो लोग वहां थे देखते रह गये।
बाबू की सिसकारी मिठाइयों के खत्म होने के साथ-साथ खत्म हो गई। और फिर कुछ समय बाद खेलने चले गये।
अब सबको चैन की साँस आई, पर किसको मालूम था यह आफत उनके सिर जल्द ही फिर से मढ़ने वाली है। इस बार तो बाबू बड़ी मुश्किल से मान गये.... लेकिन अब तो वो कहर बरसने वाला था.... , जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था।
विवाह में अभी तीन दिन की देरी थी। बाबू शाम तक अन्य बच्चों के साथ खेलने के बाद अपनी माँ के पास आए। और किसके पास जाते, किसी को जानते न थे और ना ही किसी से लगाव।
जब हम घर से दूर होते हैं और वहाँ हमारा कोई अपना या जान-पहचान वाला पास में होता है तो उससे प्रेम और लगाव कुछ ज्यादा ही बढ़ जाता है। और माँ तो माँ होती है।
रात को भोजन-वोजन का कार्यक्रम होने के बाद सोने की बारी आयी। आप तो जानते ही होंगे शादी-विवाह के माहौल में जो सबसे ज्यादा परेशानी होती है तो सोने की, एक कमरे में कई-कई लोगों को एक साथ सोना पड़ता है।
कुछ लोग छत पर, कुछ इस कमरे में तो कुछ उस कमरे में, बाबू चन्दन भी माँ के साथ उस कमरे में सो गये जहाँ और भी बाकी स्त्रियाँ जमीन पर पुआल के ऊपर बिछायें बिस्तर पर सो रहीं थीं।
अब क्या आधी रात को बाबू चन्दन का नया ड्रामा शुरू हो गया, खूब चिल्ला-चिल्लाकर रोते हुए - "हम घर जाएब... उउउ...,घरे जाईब..."। सबकी आँखें खुल गई। सबने समझाया, "इतनी रात को भूत पकड़ लेगा.... रास्ते पर सियार बैठा होगा काट लेगा.. " । लेकिन नहीं माने- "नाहीं हम जाईब.... ईईई,, "। कितना भी मनाया गया, "ठीक है! सुबह पहुँचा देंगे,इस समय सो जाओ" फिर भी कोई असर ना हुआ। मिठाइयाँ फिर से सामने लाकर रखी गई शायद बाबू मान जाय लेकिन इस बार तो उलटा हुआ सारी मिठाईयों को फेंक दिया। अब तो कोई उपाय ही न था। घर भी बहुत दूर था लगभग 40-45 किलोमीटर, लेकिन थक हारकर उसी रात को बाबू और उसकी माँ को बाइक से घर पहुँचाया गया।
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भाग-2 (चन्दन बाबू और चोटी वाली लड़की)
वहाँ से चले तो आए लेकिन विवाह के दिन फिर से चन्दन के माता-पिता को जाना था और जब जाना हुआ तो चन्दन भी जाने की जिद करने लगा। "अब हद ही हो गई इस लड़के की न तो यहाँ रहेगा और न ही वहाँ.." इतना कहकर उसके बापू हरखू ने उसे दो-चार तमाचे जड़े और शान्त कराकर साथ ले चले।
वहाँ सुबह 11 बजे तक पहुंच गये, बारात शाम आनी थी इसलिए सब लोग तैयारियों में लगे हुए थे। आज के दिन जो इक्का-दुक्का जो रिश्तेदार पहले नहीं आए थे वो भी आ गए थे। बच्चे भी अपने तैयारियों में लगे हुए थे। सब नये कपड़े, नये जूते और नये रूमाल एक दूसरे की देखते और खेलते।
चन्दन की नजर झुमकी पर पड़ी जो लगभग 12-13 साल की होगी। खूब सुन्दर देखने में, नये फ्राक पहने, आँखों में काजल हुआ था और सबसे ज्यादा कुछ चन्दन की नजरों को आकर्षित किया तो झुमकी की वो दो चोटियाँ जो उसे और भी खूबसूरत बना रही थी।
अब क्या था चन्दन उस लड़की को देखता रह गया। अब क्या ? अब दिन भर तो उसी के साथ खेलता रहा। बारात आई धूम-धड़ाका मचा और चली भी गई। कुछ रिश्तेदार अपने-अपने घर चले गए और कुछ रह गये। चन्दन के बापू हरखू तो चले गये और माँ के साथ वहीं रह गया। जाते वक्त उसे भी उसके बापू ले जाना चाहते थे कि कहीं यहाँ फिर से कोई तमाशा न कर दे लेकिन वो तैयार ही न हुआ।
अब दिन भर चन्दन झुमकी के साथ खेलता और किसी के साथ खेलता ही न था उसी के घर दिन भर रहता भी। और जब तो दिन बीता घर जाने की बारी आई तो भी यही रहने की जिद करने लगा, उसे झुमकी के साथ खेलने में अच्छा लगता था तो कैसे अब घर जाने को तैयार होता। लेकिन कब तक कोई दूसरे के घर रहे आखिर अपना भी तो घर है। और करता भी क्या? आना ही पड़ा, वहाँ से अपने घर। शुरू में तो कुछ दिन उदास रहता लेकिन फिर अपने में मशगूल हो गया। एक दिन स्कूल से लौटा तो वहाँ जाने की जिद करने लगा, झुमकी की जो याद आई थी। उस दिन तो नहीं गया। लेकिन एक दिन मौका पाकर घर से भाग निकला और वहाँ पहुँच गया। इधर घर पर चारों तरफ खोज-खबर होने लगी तो बाद में पता चला वहाँ चला गया है, वो भी उतना दूर पैदल ही। फिर कुछ दिन वहाँ रहा झुमकी के साथ कुछ ही समय खेल पाता, झुमकी जो स्कूल चली जाती थी और बाबू दिन भर उसका इंतजार करते रहते इसलिए दिन भर तो खेलना न हो पाता था लेकिन शाम को जरूर खेलने को मिलता। फिर एक सप्ताह बाद उसके बापू हरखू आये और लेकर उसे अपने साथ चले गये।
धीरे-धीरे लगभग तीन साल बीत गये। अब चन्दन बाबू कुछ समझदार हो गये। अब वह झुमकी कभी बात नहीं करता ना ही वहाँ जाने की और जाना भी न हुआ। हाँ! कभी-कभी झुमकी की याद आ जाती जब घर के लोग उसे झुमकी का नाम लेकर चिढ़ाते थे। और कभी घर पर कोई शादी-विवाह को लेकर बात होती तो चन्दन भी अपनी बात रखता कि उसकी शादी झुमकी से होगी।
चन्दन और झुमकी दोनों दसवीं बोर्ड की परीक्षा पास हुए, चन्दन के नम्बर तो कम थे लेकिन झुमकी अच्छे खासे नम्बरों से पास हुई थी।
उधर दसवीं बोर्ड की परीक्षा इस वर्ष पास करते ही झुमकी की शादी तय हो गई। अभी लगभग सोलह वर्ष की ही तो होगी झुमकी।
भले ही रोक है कि अठारह वर्ष से कम उम्र की लड़कियों का शादी नहीं किया जा सकता है। लेकिन गाँव में तो ये कहने की बस बातें हैं, ऐसा कौन करता है? अभी भी तो कुछ शादियाँ अठारह से कम उम्र की लड़कियों की तो हो ही रही हैं, दूसरा कौन पूछने वाला है? कब क्या हो रहा है? इससे भला दूसरों को फर्क क्यों पड़े? और हर दूसरा भी तो यही सोचता है .... उसकी मर्जी वो जो चाहे सो करे, हम कौन हैं रोकने वाले? इसमें हमारा क्या जाता है? व्यर्थ की दुश्मनी हम क्यों मोल लें?
पता नहीं किस तरह यह बात चन्दन को पता चल गई कि झुमकी की शादी तय हो गई है और जल्द ही वो किसी और से हो जायेगी, बस इतना सुनना था अब तो सर पर बाबू ने पहाड़ ही उठा लिया। घर पर फिर से उसका एक लम्बे अरसे बाद फूलना हुआ, उसकी शादी होगी तो झुमकी से ही होगी। अब घर वाले क्या करते ?
किसी ने कहा- "अभी और बड़े हो जाओ तो शादी करना"।
"झुमकी, भी तो अभी छोटी है, फिर उसकी शादी हो रही... मेरी नहीं... मेरी शादी झुमकी से होगी.... मेरी झुमकी से शादी करवाओ...." सिसकते हुए चन्दन बाबू इतना ही कह पाये। भला उसके घर वाले करते भी क्या? उनकी मर्जी झुमकी की शादी जहाँ करे।
अब क्या झुमकी की शादी भी हो गई, यह बात पता चलते ही चन्दन का सारा गुस्सा घर वालों पर आया कि उसकी शादी इन्होंने मेरे से क्यों न करवाई। उस दिन तो चन्दन बाबू ने कुछ नहीं किया लेकिन अगली रात को घर से भाग निकलें।
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भाग-3 (वो दुलहन )
"हक से माँगो.....बाबू चन्दन" कॉपी के कवर पर लिखी ये लाइनें चन्दन बाबू को प्रेरणा देती थीं। इसीलिए घर पर खूब रौब़ जमाते थे। अधिकतर उनकी ख़्वाहिशें पूरी कर दी जाती थी, लेकिन जरूरी नहीं कि उनकी हर ख्वाहिशें पूरी कर दी जाये।
अब तो घर से भागकर किसी तरह ट्रेन में धक्के खाते शहर पहुँच गए, जहाँ उनके गाँव के अधिकतर लोग उसी शहर में कमाने आये थे। जाहिर है, चन्दन बातों-बातों में पहले से यह सब जानता था।
खैर इधर घर पर चारों तरफ खोज-खबर होनी शुरू हो गई पर बाबू का कुछ पता नहीं चला। आठ-दस दिन बाद गाँव के झुग्गु को जब यह बात पता चली कि चंदन यहाँ घर से भाग कर आया है तो उसने उसके घर खबर दी कि चन्दन यहाँ हमारे पास है और उसे काम भी मिल गया है। उस समय पीसीओ. हुआ करता था। बड़ी मुश्किल से कहीं लम्बे समय पर बात हो पाती थी नहीं तो चिट्ठी-पत्री का जमाना था पर इक्का-दुक्का लोगों के पास अब मोबाइल फोन भी आ गए थे।
जब यह बात उसके पिता को पता चली कि वह काम पर लग गया है तो उसे बड़ा चैन मिला, कब तक पढ़ता रहता आखिर एक दिन तो कमाना ही था। इधर चन्दन अब भी नाराज था और घर पर बात करके कभी हाल-चाल नहीं लिया। धीरे-धीरे एक साल बीते अब भी नाराजगी नहीं खत्म हुई। अब घर से बुलावा का सन्देश अन्य लोगों के जरिए आने लगा, फिर भी वही बात रही। एक साल और बीते और अब खबर आया उसकी माँ की तबीयत बहुत ख़राब है, अब तो चन्दन बाबू को तो घर जाना ही पड़ा।
समय का परत दुःख -दर्द को ढक कर रख देता है फिर ये तो चन्दन बाबू का गुस्सा था, यह क्यों नहीं खत्म होता। भला माँ की तबीयत इतनी खराब हो और वह उसके पास न रहे, ऐसा कैसे हो सकता है?
अब कहानी उसी पुराने ट्रैक पर आती है जहाँ आज चन्दन बाबू घर को पधारे हैं, उनकी आवभगत भी अच्छे से की गई जो पहली बार दो साल पर बाहर से कमाकर घर लौटें थें।
उनकी माँ की तबीयत और खराब हो गई, डाक्टर ने कुछ कहने से इनकार कर दिया। अब उनकी माँ ने मरने से पहले अपने बेटे की बहू को देखने की इच्छा जताई। रिश्ता भी पक्का हो गया, अच्छा खासा दहेज मिल रहा था इसीलिए हरखू मना न कर पाया। लड़की भी बड़ी खूबसूरत थी। जो एक ख़ामी थी वो सिर्फ हरखू ही जानता था, पर इतना अच्छा-खासा दहेज हाथ से न निकल जाये इसलिए घर में ज्यादा कुछ नहीं बताया। लेकिन जैसे यह बात चन्दन को पता चली उसकी विवाह की बात पक्की हो गई है, उसे बिना कुछ बताये वो झल्लाकर रह गया क्योंकि यह उसकी माँ की इच्छा थीं। फिर भी वह शादी नहीं करना चाहता था लेकिन जब लड़की की तस्वीर उसके सामने पेश की गई तो वह मना नहीं कर पाया। शादी के लिए मंजूरी दे दी।
वो लड़की सचमुच बहुत खूबसूरत थी। अब खूबसूरती की जितनी तारीफ की जाये उतनी ही कम।
शादी बड़े धूम-धाम से हुई । उधर से जब विदाई हुई तो चन्दन.... दुलहन की खूबसूरत व हल्की मुस्कान वाली चेहरे को देखकर फूले न समाया। वो दुलहन जब घर आई तो पूरे गांव में उसकी खूबसूरती की बखान होने लगी। लेकिन किसे पता था भाग्य का पन्ना जल्द ही पलटने वाला है ? हाँ! किसे पता था? जिस दुलहन के आने की खुशी चारों तरफ फैली हुई है वो एक नया मोड़ लेने वाला है।
भाग-4 ("वाह रे! विधाता")
दुलहन को घर में लाया गया, आगे की रस्मों की तैयारी होने लगी। आस-पास की जो महिलायें वहाँ उपस्थित थी उनमें से किसी ने बड़े दुलार से पूछा, "बिटिया, तोहार नाम का है?"।
"जी, हमार नाम...लतिया...लतिया नाम है" थोड़ा सकुचाती हुई और थोड़ा सा शर्माती हुई दुलहन ने हल्के मुस्कराहट के साथ जवाब दिया।
इतना तो बस सुनना था जैसे सबके चेहरे पर साँप सूंघ गये। सब दुलहन की चेहरे की ओर बड़ी ध्यान और उत्सुकता से देख रहे थें, लेकिन दुलहन ने जैसे अपना नाम बताया इतने में इन्होन्नें वो देख लिया जो उनके लिए किसी शर्मनाक बात से कम न थीं।
हाँ! बात तो कुछ ऐसी ही थी, अधिकतर लोगों ने वहाँ से किनारा कर लिया, सभी स्त्रियाँ अपने अपने घरों को लौट गई। यह खबर फैलते देर न लगी। जैसे जंगल में आग फैलती है वैसे ही यह खबर फैली। यहाँ तो आग जंगल से भी तेज फैली, पूरे गांव में खबर में तो यह खबर फैली ही अन्य गांवों में भी यह खबर फैल गई।
जैसे जंगल में आग की लपटों के साथ-साथ धुआँ और राख उड़कर अपने चारों तरफ फैलती है वैसे ही यहाँ इस खबर के साथ-साथ अफवाहों का भी सिलसिला शुरू हो गया।
जब यह बात चन्दन को पता चली कि, "दुलहन के दाँत इतने भद्दे व खराब हैं... मसूड़े तो जैसे सड़ ही गये हैं.... दाँत पूरे काले हो चुके हैं " तो अब क्या? उसकी तो जिंदगी की जैसे लुटिया ही डूब गई। विधाता ने उसके साथ ये कैसा क्रूर मजाक किया? अब करता भी क्या? सिर पिट कर रह गया। जिसने भी यह खबर सुनी सबके मुंह से एक ही बात निकली- "वाह रे! विधाता"। इतना ही कहकर सब मन मसोस कर रह गये।
शाम हो गई लेकिन चन्दन अकेले कमरे में सोया रहा और ईश्वर को कोसता रहा। वह दुलहन के पास न गया। घर में किसी के भी पास न गया ना किसी से कुछ बोला। चन्दन के ऊपर जो बीत रही थी वह दूसरा कोई क्या समझता? लेकिन इससे थोड़ी ही किसी को मतलब था उस दुलहन पर क्या बीत रही होगी, वह भी अपने भाग्य को कोसने लगी कि ईश्वर ने उसे अपने पास क्यों नहीं बुला लिया। आखिर उसमें उसका क्या कसूर है? पर होनी को तो जो होना था वो हो चुका था या यूँ कहें कि होनी को जो होना चाहिए वो नहीं हुआ था।
चन्दन को अपनी माँ और पिता हरखू दोनों पर खीझ आ रही थीं। वह अकेले बिस्तर पर लेटा, तरह-तरह की बातें सोचता रहा। अचानक उसे कुछ याद आया, मंटों की एक कहानी "इश्क-ए-हकीकी" यहीं याद आया उसे। घर आते समय जब वह ट्रेन में यात्रा कर रहा था तब उसने बगल वाले सीट पर बैठे यात्री के पास से मांगकर जो किताब पढ़ी थी उसका नाम तो भले ही न मालूम हो लेकिन यह किस्सा जरूर याद आया। उस वक्त तो पढ़कर खूब आनन्द आया था लेकिन जब इस समय याद आया तो उतना ही मंटो से नफरत सा हो गया।
जिंदगी की तो यही सच्चाई है, किसी और की जिंदगी के किस्से पढ़कर जितना आनन्द आता है। यदि वहीं किस्से हमारी जिंदगी में घटित होने लग जाये तो वह आनंद, दुःख के सिवा और कुछ नहीं रह जाता। हर किसी को एक दूसरे की जिंदगी आसान और अपनी कठिन लगती है।
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भाग-5 (जो हुआ, सो हुआ)
सात-आठ दिन बीते पर चन्दन घर में ना किसी से बोलता ना घर से बाहर निकलता, बस अकेले कमरे में पड़ा रहता।
उसके पिता हरखू को तो यह राज मालूम था लेकिन लालच क्या न करवाता? सोचा थोड़े दिनों सब ठीक हो जाएगा, लेकिन ठीक होने का कुछ नाम ही निशान न था। वो भी छाती पीट कर रह गये और अपने किये पर पछतावा करने लगे।
चन्दन अब तक दुलहन से एक बार भी न मिला ना उसके बारे में कुछ सोचा। उधर दुलहन भी दिन-रात सिसकती रहती, उसके अलावा वो भी क्या कर सकती थी। घर में ना कोई सुध से खाना खाता ना किसी से कोई कुछ बोलता। जैसे सब कोई किसी का शोक मना रहे हो।
इस बीच धीरे-धीरे चन्दन की माँ की तबीयत में सुधार हुआ।
चन्दन यही सोचकर घर से बाहर ना निकलता कि कोई उसका मजाक उड़ाने लगेगा। उसी की ही चारों तरफ बाते होंने लगेंगी। सच ही है ऐसा ये तो समाज का काम है ही, भला वो न करे तो कौन करे? लेकिन एक बात ये भी है, समाज को आपसे कुछ लेना-देना नहीं, उसे तो जो थोड़ा सुकून दूसरों की बातों से मिलता है बस उसी से मतलब है।
सामने वाला आपके बारे में क्या सोचेगा? भले ही सामने वाला आपके बारे में कुछ ना सोचे लेकिन आप जरूर सोचेंगें सामने वाला आपके बारे में यह-यह....वो-वो.... और ना जाने क्या सोचेगा? यह भी मनुष्य की प्रकृति ही है, शायद हमारे कुछ सिद्ध तपस्वियों को छोड़कर।
किसी से हरखू को पता चला-"शहर में एक डाक्टर हैं, शायद उनसे दिखाने से बात बन जाये। हाँ! खर्चा खूब लगेगा।"
हरखू ने भी जवाब दिया "अब जितने भी खर्चे लगे वो दुलहन ठीक हो जाए बस यही भगवान की कृपा होगी। आखिर वो भी तो अपनी ही है ना" ।
शाम को जब बात हरखू ने चन्दन को बताई तब एक सुकून सा हुआ। "भला बेचारी का क्या कसूर है? यह तो मेरी किस्मत ही खोटी है " यह सोचकर चन्दन ने अपने-आप को सांत्वना दिया। और आज विवाह के दस दस दिनों बाद पहली बार दुलहन के पास गया। कमरे में प्रवेश करते ही बिस्तर पर बैठी लतिया सकपकाते हुए उठकर एक किनारे खड़ी हुई और चन्दन बाबू को घूँघट की आड़ से हल्की सी देखने लगी न जाने क्या कहे?
"कल सुबह तैयार हो जाना" चन्दन ने कहा।
लतिया का हृदय धकक् से करके रह गया जाने कहाँ जाने के लिए कह रहे हैं, तैयार हो जाना।
"जी.." उसके मुंह से बस इतना ही निकला।
"सुबह हम शहर जायेंगे...उउ जवन...तुम्हारे दाँत में परेशानी है न....वही डाक्टर से दिखाना है।" अगले पल ही चन्दन बोला।
लतिया चुप रही। चन्दन फिर से बोला-"सब ठीक हो जाएगा.... उउ बढ़िया डाक्टर हैं।"
"हूँ" बस इतना ही कहकर लतिया चुप रह गयी और चन्दन कमरे से बाहर चला गया।
इस समय लगभग शाम के सात बज रहे होंगे, उसे कुछ ख़्याल आया और दस दिनों में पहली बार घर से बाहर कदम रखा। वह सीधे रामू के पास पहुँचा।
"और कहो कईसे आना हुआ.... महाराज जी इतने दिनों बाद दर्शन दिये" रामू चन्दन को देखते ही झट से बोल पड़ा।
दोनों में बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ और बातों ही बातों में चन्दन ने रामू जो उसका दोस्त है को बताया कल शहर दुलहन के इलाज के लिए जाएगा इसलिए कुछ रुपये-पैसों की जरूरत है... वैसे उसके पास कुछ पैसे तो हैं , लेकिन कहीं कम न पड़ जाये इसलिए वह उसके पास आया है।
अगला दिन चन्दन दुलहन को लेकर शहर गया और दिन-चार दिनों तक रुककर इलाज करवाया फिर घर आ गया। बीच-बीच में तीन-चार महीनें एक-दो दिनों के लिए उसे शहर में और जाना पड़ा ताकि सही से इलाज हो सके। और अब सब ठीक भी हो गया। चन्दन और घर में सबने यही मन ही मन कहा- "जो हुआ, सो हुआ....ईश्वर जो भी करता है, अच्छा ही करता है।"
कहते हैं ना दुःख और सुख का बादल एक सा नहीं रहता है। कभी वह गहरा होता है तो कभी हल्का होता है। बादल-सा उसका रंग भी बदलता रहता है जैसे कभी काला, कभी नीला, कभी लाल तो कभी पीला।
यहाँ अब सबकुछ ठीक है, कई वर्ष भी बीत चुके हैं। इस समय चन्दन अखबार पढ़ रहा था लेकिन अचानक उसकी नजर एक शब्द पर जाकर रुक गयी। "मंटो" बस इतना ही पढ़ा आगे नहीं पढ़ सका, उसे आज भी मंटो नाम से कूढ़ सी है, मंटो नाम से आज भी उसके रोये खड़े हो गये।
लेकिन कुछ पल "मंटो" नाम पर नजरे टिकाये रहने के बाद उसने गहरी साँस लेते हुए एक बार फिर ईश्वर का धन्यवाद किया और उस डाक्टर के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना की।
-रवि कुशवाहा
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