अवहेलना
अवहेलना
एक बार की बात है, परमपिता परमात्मा के राज्य में उनकी दो सुंदर पुत्रियां थी। जिनका नाम था प्रकृति और मानवता। दोनों ही राजकुमारियां सुकोमल, सुंदर और प्राणमयी ममता की मूरत थी। जहां प्रकृति का स्वभाव सटीक व न्याय वादी था, वही मानवता क्षमा और दया की मूर्ति थी। प्रकृति के मन में चूंकि कुछ भी पाने की लालसा ना थी, तो उसने आजन्म अविवाहित रहने का निर्णय लिया। और क्योंकि वह अपनी छोटी बहन मानवता पर ढेर सारा स्नेह रखती थी तो उसने अपनी सारी संपत्ति, अपने राज्य का सारा हिस्सा मानवता कि भावी संतानों को देने का निर्णय किया। समय बीतता गया।मानवता का विवाह हुआ और उसके यहां एक पुत्र रत्न का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया 'मानव'।
मानव अपनी बाल्यावस्था में तो समझदार व विवेकशील प्रतीत होता था परंतु धीरे-धीरे वह उद्दंड, निरंकुश, लालची व अत्याचारी होने लगा।अपनी कुसंगत व दुर्व्यसनों के चलते उसने पहले तो अपनी मां मानवता को लूट कर कंगाल कर दिया, फिर धीरे-धीरे वह अपने पुरखों की दी हुई संस्कार, धैर्य, ज्ञान, त्याग इत्यादि की संपत्तियों को भी नष्ट करने लगा।
अपने लालची स्वभाव के चलते एक दिन मानव, मानवता को छोड़ प्रकृति की अनुपम राज्य में जा पहुंचा। वहां की अकूत धन संपदा को देखकर उसके मन का लालच दिनो दिन बढने लगा।उसकी मौसी प्रकृति ने उसे चेताया कि इस साम्राज्य की सारी सुख सुविधाएं कुछ नियमों की पालना से ही मिलती है और उन नियमों की अ
वहेलना करने पर यहां दंड का भागी बनना पड़ता है किंतु मानव ने प्रकृति की चेतावनी का उपहास उड़ाया।
अब मानव वहां भी अपनी उच्छृंखलता के चलते छेड़छाड़ करने लगा एवं उत्पात मचाने लगा। न्याय वादी प्रकृति ने कुछ समय तो मानव को अपना समझ कर क्षमा किया, चेतावनी भी दी किंतु आखिर लोभी मानव को प्रकृति के कोप का भाजक बनना ही पड़ा। अब प्रकृति के राज्य में मानव को समय-समय पर कठोर यातनाएं मिलने लगी उसे भूख, प्यास, शारीरिक व्याधियों, अक्षमता जैसी अनेकों विपदाओं का सामना करना पड़ता। दुष्ट मानव फिर भी अपनी बुरी आदतों से बाज ना आता।
वह अपनी माता मानवता को तो पूरी तरह विस्मृत कर ही चुका था, अब मां जैसी प्रकृति से भी उसे स्नेह न रहा।
आखिरकार तंग आकर प्रकृति ने मानव को दंड स्वरूप एक ऐसे रेगिस्तान में छोड़ दिया जहां न तो वृक्ष की छाया थी, ना पीने को पानी। जहां हवाएं जहरीली थी और चारों ओर गंदे बदबूदार रसायनों के तालाब सड़ांध मारते थे।
मानव अब वहां हर पल तड़पता था और पश्चाताप करता था कि काश, उसने प्रकृति के नियमों की अवहेलना न की होती तो वह आज उसके सुंदर साम्राज्य और धन संपदा का अधिकारी होता।काश, वह अपनी मां मानवता की ओर समय से ही लौट जाता। किंतु अब देर हो चुकी थी......बहुत देर।
नोट : कुछ कहानियां सत्य घटनाओं पर आधारित होती हैं और कुछ अपने आप में जीता-जागता..... नजर आता सच।
आप सोचिएगा अवश्य।