Bhawna Vishal

Drama

5.0  

Bhawna Vishal

Drama

विसर्जन

विसर्जन

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'तुम हो तो विचित्र ही स्निग्धा' अनिकेत ने हंसते हुए कहा।

' हां बेटा तुम ही समझाओ ना इसे बाप बेटी ने मिलकर मेरा धर्म ही भ्रष्ट कर दिया है 'स्निग्धा की मां उलाहना भरे स्वर में बोली। 

हाथों की अंजली में भरे जल का अर्पण देती हुई स्निग्धा ने आंखें खोल कर, अपनी स्याह काली आंखों को छोटा करते हुए पूछा 'क्यों भाई '

'कुछ नहीं बस 18 वीं शताब्दी की कोई भटकी हुई आत्मा लगती हो तुम '

अनिकेत का ऐसा कहना स्वाभाविक था। 

स्निग्धा........ नहीं, डॉक्टर स्निग्धा अपनी मेडिकल की पढ़ाई अच्छे नंबरों से पास करने के बाद अच्छी स्कॉलरशिप के विदेशी ऑफर को ठुकरा कर यहां इस छोटे से शहर में एनजीओ चला रही है ।जहां वह गरीब असहाय बच्चों को मुफ्त में शिक्षा देती है। यहां तक तो ज्यादा कुछ खास नहीं मगर बात तब थोड़ी विचित्र हो जाती है जब गणेश स्थापना के दस दिनों में, गणपति की मूर्ति की सेवा अर्चना के स्थान पर प्रतिदिन अलग-अलग गरीब बच्चे को घर लाकर अच्छे से भोजन इत्यादि करवाती है और उपहार भी देती है ।यूं तो स्निग्धा एक उच्च कुलीन संपन्न माता-पिता की इकलौती संतान है। जिस परिवार में रूढ़िवादिता के कुछ अंश अब भी मौजूद है किंतु इसे ममता कहें या मानवता, उसकी यह जिद हर बार स्वीकार कर ही ली जाती है। और इस प्रकार उन बच्चों को एक दिन के लिए सही, एक अलग और उनकी दुनिया से कहीं बेहतर दुनिया में रहने का अनुभव कराती है,....उनकी स्निग्धा दीदी।

और फिर हर साल गणपति विसर्जन वाले दिन वह यहां घाट पर कुछ पलों के लिए शांत खड़ी होती है, अपनी आंखें मूंदकर अपनी हथेलियों के बीच से जल का अर्पण करती है ।वह मानती है कि विसर्जन किसी मूर्ति या प्रतिमा का नहीं बल्कि हमारे अंदर भरे हुए अवगुणों का करना चाहिए|इस तरह हर साल एक नए सिरे से अपना क्रोध, लोभ, मोह जैसे अवगुणों के लेशमात्र को भी घाट पर विसर्जित कर देती है ।

हालांकि उसके बचपन के दोस्त अनिकेत को उसकी बातें ज्यादा समझ नहीं आती, न जाने क्यों फिर भी हर साल वो उसके साथ चला आता है .......आज भी चला आया है ।

'हेलो क्या हुआ' अनिकेत को खुद की ओर विचार मग्न हो देखता पाकर स्निग्धा ने पूछा।

' बस यूं ही सोच रहा हूं कि तुम्हारे इन अटपटे आइडियाज का हर बार मैं ही क्यों भागीदार बन जाता हूं? 

'वाह जी अटपटे काम क्यों, हर समाज को समय-समय पर नवाचारों की आवश्यकता पड़ती है ।यह जो सब महापुरुष है जिनके जन्म दिवस हम धूमधाम से मनाते हैं ,किताबों में जिनको पढ़ते हैं, उन सबने नवाचारों से अपने-अपने समय में समाज- सुधार का प्रयास किया है ।झूठे आडंबरों से मुक्ति के नाम पर संसार भर में न जाने कितने पंथ, संप्रदाय जन्मे हैं ।और वैसे यह सब सामान और गणपति बप्पा की मूर्ति यहां घाट पर विसर्जित करने का क्या लाभ, यदि मन में ही मैल रह जाए ।असली विसर्जन तो दुर्गुणों का होना चाहिए ताकि हमारे मन में सच में गणपति विराज सके। समझे, डॉक्टर अनिकेत !'

यह सब कहते हुए स्निग्धा के कोमल चेहरे पर सत्य और संकल्प का ओज देखकर अनिकेत ही नहीं, उसके माता-पिता भी सगर्व प्रेम से भर उठे।


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