Minal Aggarwal

Tragedy

4.5  

Minal Aggarwal

Tragedy

असहयोग आंदोलन

असहयोग आंदोलन

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मानसी के पिता जी शहर के एक प्रतिष्ठित कारोबारी और सार्वजनिक रूप से सम्मानीय व्यक्ति थे। पिता जितने सामाजिक और व्यवहारिक थे उतने ही मां के पांव घर तक ही सीमित रहते थे। वह एक बेहद साधारण, सरल एवं घरेलू किस्म की शांत प्रकृति की महिला थी। मानसी का विवाह किसी कारणवश नहीं हो सका था। मां बाप के प्यार में उसने आजीवन कभी कोई कमी नहीं पाई थी। उनका साथ जितना सम्भव हो सके उतने अधिक लंबे समय तक के लिए बना रहे, यह उसके जीवन की सबसे बड़ी अभिलाषा थी। मानसी का भाई अभिषेक कारोबार में पिता का हाथ बंटाता था और उनकी मृत्यु के पश्चात तो पूरी बागडोर उसी के हाथों में आ गई थी। अभिषेक का अपने मां बाप और परिवार से मनमुटाव अकारण ही रहता था। विवाह के पश्चात तो अपनी पत्नी के आने से और फिर अपना परिवार बढ़ने से यह दिल की दूरियां पटने के बजाय और विस्तृत होकर फैलती गई। बाप बेटे में व्यवसायिक सम्बन्ध थे। इससे ज्यादा कुछ नहीं।

अभिषेक के देखा जाये तो अपने परिवार के किसी भी सदस्य से कभी अच्छे सम्बन्ध रहे ही नहीं। उसका झुकाव अपनी पत्नी, बच्चों और ससुराल की तरफ बढ़ता ही जा रहा था। स्थिति को भलीभांति समझते हुए, कहीं न कहीं उसको यह अच्छे से अहसास करा दिया गया था। उसके दिल और दिमाग में यह बात बिठा दी गई थी कि उसका ससुराल पक्ष ही उसका मीत है और उसके अपने उसके पराये, उसके शत्रु, उसके अपराधी। अभिषेक की ससुराल के सारे सदस्य एक सुर में रहते थे। आंखों आंखों में इशारे करते थे। एक अमीर घर के लड़के को फंसाकर रखने में उनकी चांदी ही चांदी थी। फूट डालो राज करो। कान भरना। झूठी शिकायतें। एक अजीब दलदल में अभिषेक धंसता जा रहा था और उसे कुछ सोचने का या उससे बाहर निकलने का कोई मौका नहीं दिया जाता था। एक जाल नहीं सौ जाल उसके इर्दगिर्द फैला रखे थे जिन्हें शायद समझना या उससे बाहर निकलना असम्भव था। अभिषेक का मकसद था अपने परिवार को बचाये रखना और अपने पिता जी के कारोबार को पूरी तरह से अपने नियन्त्रण में कर लेना। पिता जी के देहान्त के कुछ बरस पश्चात माता जी भी चल बसी। मानसी के लिए एक के बाद एक अपने मां बाप की मौत जीवन की किसी एक बहुत बड़ी दुर्घटना से कम नहीं थी। अभिषेक ने पिता जी के देहान्त के पश्चात भी अपनी मां का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा। मानसी ने ही अपनी मां को देखा। बेटे का अगर सहयोग मिलता तो दोनों ही इतनी जल्दी जाने वाले नहीं थे। पिता जी के सामने और फिर मां के रहते भी जब कभी अभिषेक से मानसी का आमना सामना होता वह हमेशा ही बिना कुछ सोचे बहुत बुरा और अपमानजनक व्यवहार करता। उसे कभी यह भी ख्याल नहीं आया कि उसके बूढ़े मां बाप यह सब कैसे झेल रहे होंगे। माता जी के मरने से कुछ समय पहले उनके ही मुंह पर कहता है, 'सुनो यह थोड़ा बहुत घर का खर्च जब तक मां जिन्दा है तब तक दे रहा हूं। इनके मरते ही यह भी देना बंद कर दूंगा। जो भी जमा पूंजी तेरे पास बैंक में है, उसी से अपना खर्चा चलाना।' इस तरह की बेरुखी और बेअदबी का नतीजा यह हुआ कि मां का साया भी सिर से बहुत जल्द उठ गया। अभिषेक ने तमाम उम्र पिता जी का कभी ख्याल नहीं रखा। उनकी मृत्यु के पश्चात मां को तो कभी नजर भरकर देखा ही नहीं। मानसी से तो उसकी जन्मजात दुश्मनी थी ही। मां की मृत्यु के पश्चात मानसी को लगा कि अब शायद उसके भाई में कोई परिवर्तन आयेगा और वह उसका ख्याल रखेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि उसका व्यवहार दिन प्रतिदिन और अमानवीय होता गया। मानसी कारखाने और आफिस में ही बने घर में रहती थी। मां बाप की मौत के बाद अब वह बिल्कुल अकेली रह गई थी। अभिषेक तो अपनी शादी के पहले दिन से ही अपने परिवार से अलग रहता था। अभिषेक ने कुछ समय पहले ही अपने नये फ्लैट में शिफ्ट किया था। एक पुराना फ्लैट भी है, अच्छी तरह से सुसज्जित और रहने योग्य। मां की मृत्यु के तीसरे दिन ही उनकी उठावनी कर दी गई। कारखाने में ग्राउंड फ्लोर पर ही अभिषेक, उसकी पत्नी और तीन बच्चों में से बस एक बेटी आये। मानसी के थोड़ा इधर उधर होते ही बिना उसे सूचित किये चले गये। तेरहवीं पर अभिषेक अकेला ही पंडित को लेकर आया और फिर हवन आदि कराकर नीचे से ही चला गया। कोरोना के चलते कोई रिश्तेदार भी दूर दराज इलाकों से नहीं आ पाये थे। लॉकडाउन भी था। कोरोना के केस भी बहुत बढ़ रहे थे। मानसी की एक दोस्त उसके पास रुक गई थी और लंबे समय तक रुकी रही। अभिषेक लगभग एक महीने तक कारखाने और आफिस आया ही नहीं। अभिषेक ने न मानसी को कॉल किया, न उसे अपने घर आकर साथ रहने को कहा, न उसके पास अपने बच्चों में से किसी को रहने के लिए भेजा, कुक होते हुए भी उसके लिए किसी प्रकार के भोजन की व्यवस्था नहीं करी आदि। लगभग महीने भर बाद जैसे ही कारखाने में कदम रखा, मानसी पर टूटकर पड़ा कि, 'यह खिड़की कैसे खोली हुई है? यह आफिस की मेन डोर तू खोलने क्यों नहीं देती है? यह आफिस की सारी लाइट्स तू जलाने क्यों नहीं देती? सब तेरे से बहुत परेशान हैं।' मानसी के लिए यह सब कुछ नया नहीं था लेकिन मां के मरने के बाद सामने पड़ते ही उसपर इस तरह से प्रहार होगा, यह अकल्पनीय था लेकिन यह सिलसिला थमा नहीं। एक शाम मानसी को अपने आफिस में बुलाकर बहुत शराफत से कहना शुरू किया कि, ' मानसी कार ले और शहर से कई किलोमीटर दूर एक सोसाइटी बन रही है जिसमें फ्लैट्स काफी सस्ते हैं। उन्हें देखकर आ। किश्त भरने के बारे में बाद में सोच लेंगे। यहां से स्थाई तौर पर वहां शिफ्ट कर ले या बारह से पंद्रह दिन वहां रह ली बाकी यहां रह ले नहीं तो चल लेकर डाल देते हैं, यहां से नहीं भी जा।' मानसी समझदार थी लेकिन जो कुछ भी उसके साथ इस दुख की घड़ी में हो रहा था वह अशोभनीय और शर्मनाक था। यह कहना तो दूर कि, 'मानसी, तू जब चाहे मेरे घर आकर रह सकती है। चाहे तो जो पुराना फ्लैट है उसमें रह सकती है। चाहे तो यहां रह। चाहे तो किसी को साथ रख ले। मन करे तो बीच बीच में कहीं घूम आया कर।' यह सब छोड़ सीधे घर से निकालने की साजिश पर काम करना शुरू कर दिया। इस तरह के व्यवहार से तो बिल्कुल साफ था कि रास्ते के तीन रोड़ो में से दो तो साफ हो चुके थे। बस अब तीसरे का सफाया होना बाकी था। मानसी की एक बहिन भी थी पर विदेश में रहने के कारण इतना बड़ा खतरा नहीं थी। फैक्ट्री, आफिस और घर की बात करें तो फैक्ट्री ग्राउंड फ्लोर, घर और आफिस फर्स्ट फ्लोर पर हैं। एक मेन आफिस, पिता जी का आफिस और एक अभिषेक का आफिस। बाकी के हिस्से में घर है। पिता जी का आफिस लगभग खाली ही पड़ा रहता है। आफिस से सड़क दिख जाती है, नेट के सिग्नल अच्छे आते हैं, बीच बीच में एसी चलाकर आफिस को ठंडा किया जा सकता है, आने जाने वाले और थोड़ी सी गतिविधियां भी दिखती रहती हैं। बाहर पेड़ पौधों की हरियाली भी दिखती रहती है। आफिस जब खाली है तो उसमें क्यों नहीं बैठा जा सकता लेकिन एक दिन अभिषेक जैसे ही आया उसके तन बदन में आग लग गई कि मानसी पापा के आफिस में इतने आराम से कैसे बैठी है। आते ही उसने धीरे से उसके कान में कह दिया कि, 'एसी कम चलाया कर।' इतनी भीषण गर्मी में घर में आफिस जैसी सुविधाओं के अभाव में और मां के बिना अकेले पूरा दिन घर के अंदर काटना एक जेल में बंद होने जैसा अनुभव था लेकिन अभिषेक ने पिता जी का आफिस मानसी इस्तेमाल न कर पाये के सारे दांव पेंच सोच लिए थे। मेन आफिस को उसमें शिफ्ट करने की योजना, अपनी बेटी को घर से लाकर वहां बिठाना। कोई भी विजिटर आया तो उसे कोई खास जरूरत न होते हुए भी वहीं बैठाना आदि। यह सब महज ख्याली पुलाव नहीं था। वह सच साबित हुआ जब उसके साथ अभद्रता करते हुए उसे घर के अंदर बंद रहने की हिदायत दी गई। अभिषेक फैक्ट्री का मालिक है। वह जो चाहेगा वह होगा। अभिषेक ने इस दौरान कभी कुछ भी बाजार से मंगवाकर खाया तो खुद खाया और दूसरों को खिलाया। उसे कभी नहीं पूछा। उसे तो हमेशा यह कहा जाता है कि, 'खाना बच जाये तो खा लेना।' रिश्तेदारों का भी कुछ खास साथ नहीं। उनकी बातचीत भी बैंक में जमा धनराशि, जेवर आदि बातों तक ही सीमित रही। उनकी भाषा और आचरण भी कोई उच्च कोटि का नहीं है। मानसी सोच रही थी कि इस समस्या का आखिर हल क्या है। उसका परिवार तो खुद ही समस्यायें पैदा करता है। उसके खिलाफ तो सबने मिलकर एक असहयोग आंदोलन छेड़ रखा है। मानसी को दरअसल अब परिवार की परिभाषा को बदलना था। उसे खून के रिश्तों से बाहर निकलकर इंसानियत से भरे दिलों की अब तलाश करनी थी। मन में जिसकी सेवा का भाव नहीं वह लाख अपना सही पर सब व्यर्थ। यह ही वह विषम समय था जब यह निर्णय लेना था कि सही लोगों का चुनाव करके उनके साथ अपने जीवन को आगे कैसे बढ़ाया जाये। अभिषेक की बातों को तो नजरअंदाज करने में ही भलाई थी। उसके सामने कम से कम पड़ो। कम से कम बोलो। किसी भी प्रकार की कोई उम्मीद मत करो। बात ज्यादा बढ़े तो फिर रिश्तेदारों की तो नहीं हां पुलिस और प्रशासन की मदद ली जा सकती है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण होगी लेकिन एक कहावत है कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। मानसी ने यह मन ही मन ठान लिया था कि चाहे सामने वाले का व्यवहार कितना ही खराब क्यों न हो उसे अपना व्यवहार हमेशा ठीक ही रखना है। किसी की बातों में कम से कम पड़ना है। अपनी समस्यायों के विषय में ज्यादा किसे से विचार विमर्श न करके खुद ही उन्हें सुलझाना बेहतर होता है। अधिकतर लोग किसी की कमजोरी का फायदा उठाकर राजनीति शुरू करके समस्या को और अधिक गम्भीर और भयावह बना देते हैं, इससे ज्यादा उनका और कोई योगदान नहीं होता। जीवन के इस कठिन दौर में मानसी को परिवार से अधिक उसके दोस्तों, परिचितों, फैक्ट्री कर्मचारियों का अधिक सहयोग मिला। उसने अपने आप को किसी न किसी कार्य में भी व्यस्त रखा। वर्तमान में जीना सीखा, भविष्य की चिंता छोड़कर। देखा जाये तो मानसी को यह समझ आ गया था कि किसी का सहयोग थोड़ा बहुत कभी कभार मिल भी सकता है लेकिन आखिरकार अपनी समस्यायें खुद ही सुलझाते हुए अपना जीवन अपने दम पर ही काटना पड़ता है।



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