वह गरीब रिक्शावाला
वह गरीब रिक्शावाला
किसी भी व्यक्ति के बचपन की घटनायें उसके व्यक्तित्व के निर्माण में एक महत्वपूर्ण सहायक की भूमिका अदा करती हैं। उसकी आखिरी श्वास तक एक चलचित्र की भांति वह उसके दिलो दिमाग में चलती रहती हैं और जीवन के हर मोड़ पर एक सही निर्णय लेने में उसकी सहायक बनती हैं।
मैंने बचपन से लेकर आज तक यह पाया कि किसी का अच्छा व्यवहार मन को भीतर तक किसी चांद की शीतलता सा स्पर्श कर जाता है जबकि कोई भी बुरा अनुभव आत्मा को झकझोर देता है।
बचपन में शाम को हल्का अंधेरा होने लगा था। मैं अपने घर के बाहर कॉलोनी में चहलकदमी कर रही थी तभी हमारे पड़ोसी जो पुलिस विभाग में थे रिक्शा में अकेले बैठे कहीं से आते दिखे। रिक्शा से उतरते ही उन्होंने रिक्शा वाले के हाथ में दस रुपये थमाये। रिक्शा वाला बोला, 'बाबूजी, जो ठहराया था उससे दो रुपये कम है।'
रिक्शा वाला काफी बूढ़ा, दुबला पतला, बीमार, गरीब और लाचार दिख रहा था। पुलिस वाले अंकल भी अच्छी खासी उम्र के थे।
जैसे ही उसने यह कहा वह आग बबूला हो गये और उसके कान पर एक जोरदार तमाचा जड़ दिया। उसके कान से खून बहने लगा लेकिन वह सब कांड करके बड़ी ही बेरहमी दिखाते हुए बिना पलटे तेज कदमों से अपने घर में दाखिल हो गये।
वह गरीब रोता हुआ चुपचाप अपना रिक्शा मोड़कर कहीं अंधेरे में खो गया। एक या दो रुपये के पीछे इतने घृणित कार्य को अंजाम देना और आंखों में कोई शर्मिंदगी का भाव न होना वाकई बेहद शर्मनाक है और दर्दनाक भी। समाज में अपनी छवि तो ऐसे लोग अक्सर ही एक बहुत सभ्य और संभ्रांत व्यक्ति की बनाये रखते हैं।
इस घटना का मेरे दिल पर बहुत बुरा असर हुआ लेकिन सीखने को यही मिला कि हमें कभी भी किसी गरीब, लाचार या वक्त के मारे लोगों की आत्मा को कभी नहीं सताना है। हमेशा अपना हाथ उनकी मदद के लिए बढ़ाना है न कि उन्हें मारने के लिए। कोई कानूनी कार्यवाही भी जो तत्काल रूप से प्रभावी हो ऐसे असामाजिक तत्वों के खिलाफ अवश्य होनी चाहिए। इस तरह के मामलों में गरीब को उसका हक और न्याय हर हाल में मिलना चाहिए।
