अर्धांगिनी

अर्धांगिनी

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“क्या कर रही हो अब तक ? आकर पैर दबा दो मेरे।” पत्नी को आवाज मारते हुए वीरेंद्र सिंह बोले।

“जी, वो अभी बस अम्मा को दवाई देकर आ रहे हैं।”

“अभी तक निपटी भी नहीं काम से ! सुबह से थक जाते हैं पुलिस की नौकरी है, कोई तुम्हारी तरह सारे दिन घर में आराम नहीं फरमाते। जल्दी आना।”

पति की बात सुन कर आरती के मुँह से कोई शब्द न निकले। वैसे भी सोलह साल में शायद ही कोई दिन होगा जब उसने पत्नी को प्यार से कुछ कहा हो।

लम्बा चौड़ा रौबीला व्यक्तित्व। एक अच्छा भाई, एक अच्छा पिता और आज्ञाकारी पुत्र। पति भी देखा जाए तो अच्छा था क्योंकि पत्नी को सारे आराम तो दे ही रखा था। शायद इन्हीं की अपेक्षा एक पत्नी को रहती होगी….शायद…..।

दवा देकर वापस आई तो वह माथे पर हाथ टिकाए लेटा हुआ था। आरती खामोशी से पैर दबाने लगी। इस दौरान वो अक्सर ख्यालों में गुम हो जाती है। उसके सपने समय के साथ गुम होने लगे थे लेकिन यदा कदा उनकी याद सताने लगती।

“सुनिए !”

“कहो !”

“आपकी कभी इच्छा नहीं होती क्या…...रहने दीजिए।

“क्या रहने दूँ ? कैसी इच्छा !”

पर एक खामोशी उसकी जुबान पर आ गई हमेशा की तरह। वो पति को टेंशन नहीं देना चाहती थी क्योंकि नौकरी ऐसी ही थी।

“बोलोगी अब !”

“वो मैं बोल रही थी…..” फिर खामोश।

“इतना समय नहीं है मेरे पास जो कहना है कहो और जरा हाथ दबा कर चलाओ….पैरों में दर्द है।” आवाज में नरमी के साथ वीरेंद्र ने मालती को कहा।

“आपकी कभी इच्छा नहीं होती हमारे साथ सोने की ?” एक झटके में वो बोल गई और नजर नीचे झूका ली।

“नहीं, हमसे कम जगह में नहीं सोया जाता। थक जाते हैं।” उसके सवाल से अनजान बन वीरेंद्र ने जवाब दिया।

“जोर से दबावो ना ! किसी को बीस रूपये देकर पैर दबवा लेता तो तुमसे अच्छी तरह दबा लेता।”

“कोशिश कर तो रहे हैं आप सो जाइये।” आँखों की नमी और होठों के कम्पन्न को छिपा कर वो बोली।

पति पर विश्वास भी बहुत है कि ऐसी बेरूखी की वजह कुछ गलत नहीं हो सकती लेकिन फिर भी...। आज छ:महीने हो गए। किसी से कहूँगी तो हास्यास्पद ही होगा कोई विश्वास न करेगा। क्या फायदा अपनी पीर कह कर।

“आरती...आरती ! कहाँ खोई हो ?”

“कहीं नहीं बस यूँ ही।”

“तुम्हें बहुत परेशान करता हूँ ना मैं ?”

“ऐसी कोई बात नहीं है। क्यों कह रहे हैं ऐसे आप ?”

“नहीं, तुम बहुत झेलती हो मुझे। बाहर की सारी टेंशन सारा गुस्सा तुम पर निकाल देता हूँ।”

“कोई बात नहीं पत्नी हूँ आपकी। मैं नहीं समझूंगी तो कौन समझेगा।”

“हाँ, तुम पत्नी हो मेरी। मेरी अर्धांगिनी यानि मेरा आधा अंग। तुम्हें गुस्सा नहीं आता मुझ पर ? मैं तुम्हें समय नहीं देता। तुम्हें तुम्हारी खुशियाँ नहीं देता। और पतियों की तरह नखरे नहीं उठाता, पर विश्वास रखता हूँ अपने परिवार के लिए तुम पर। मेरे जीवन को तुमने सजाया है।”

“शायद सबकी खशियों की वजह अलग अलग होती होगी। मुझे तो आपके इन शब्दों में ही खुशियाँ मिल जाती हैं जो आप एक साल में जरूर कह देते हैं। चलती हूँ बच्चों के पास रात बहुत हो गई है और आपको सोना होगा।”

“हाँ, लाइट बंद कर देना।”

“जी।”

कहकर आरती कमरे से निकल गई। आज भी आँखें नम ही थी हमेशा की तरह।


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