अपराधबोध
अपराधबोध
सुमन ने जो किया उसके लिए सभी उसकी तारीफ कर रहे थे। उसने एक दुधमुहीं अनाथ बच्ची की माँ बनना स्वीकार किया था।
"सुमन तुमने तो समाज के लिए एक आदर्श पेश किया है। ना जाने वो कैसी माँ होगी जिसने इतने छोटे बच्चे को बेसहारा छोड़ दिया था।" यह कहते हुए सुमन की सहेली ने उसे गले लगा लिया।
सुमन के भीतर कई सालों से एक नन्हें से बच्चे के रोने की आवाज़ गूंज रही थी। वह आवाज़ उसकी कोख से पैदा हुए बच्चे की थी। बिन ब्याही माँ अपने कलेजे पर पत्थर रख कर उसे रोता छोड़ आई थी।
दस सालों से वह यह सोच कर रातों को जागती रहती थी कि ना जाने उस मासूम की आवाज़ किसी ने सुनी भी होगी या नहीं। उसे किसी परिवार ने अपनाया होगा या नहीं। या फिर वह अनाथालय में ही रह रहा होगा। यह सारे सवाल उसे बहुत परेशान करते थे।
विवाह के बाद उसे अच्छा घर, पति, मान सम्मान सब मिला पर प्रकृति ने दोबारा उसकी कोख नहीं भरी।
वह भीतर ही भीतर घुल रही थी। पति को लगता था कि माँ ना बन सकने के कारण वह दुखी है। उन्होंने समझाया कि वह दुखी ना हो। जीवन में सबको सब कुछ नहीं मिलता है। जो है उसमें प्रसन्न रहे पर वह कैसे समझाती कि यह उसका अपराधबोध है जो उसे परेशान कर रहा है।
उसे अपनी सहेली से पता चला कि जिस अस्पताल में वह नर्स है वहाँ एक नवयुवती बच्चे को जन्म देकर चुपचाप उसे छोड़ कर चली गई। उसे लगा जैसे वक्त फिर से वही दोहरा रहा है जो उसने किया था। अपने छोटे से बच्चे को वह अनाथालय के बाहर छोड़ आई थी। उसे लगा कि उसे अपनी गलती सुधारने का मौका दिया है।
सुमन ने अपने पति व घरवालों से बात की। पहले तो वह लोग नहीं माने पर सुमन ने अंततः उन्हें मना लिया।
कानूनी प्रक्रियाएं पूरी करने के बाद वह परी को घर ले आई। उसे छाती से लगा कर इतने दिनों से तड़पती उसकी ममता को सुकून मिला।
अपराधबोध समाप्त तो नहीं हुआ पर कुछ कम अवश्य हो गया।