अंतिम याचना
अंतिम याचना


“प्राणों से प्रिय मेरे प्रि.....
तुम्हें सदा प्रियतम कहनेवाली मैं आज प्रियतम लिख न पाई, समझ न पाई कि प्रियतम कौन - त्याग रही प्राण जिसके लिए वो बेटी या त्यागने वक्त याद कर रही हूँ जिसे वो तुम। तुम्हारे साथ ऐसी सत्यनिष्ठ नहीं रही कभी कि प्रत्येक शब्द नाप-तौलकर प्रयोग करूँ परन्तु अभी तो किसी अज्ञात शक्ति ने प्रियतम लिखते हाथों को मानों पकड़ ही लिया, किसने शायद मृत्यु के भय ने या चिर बिछुड़न की टीस ने।
कैसी विडंबना है, प्रथम मिलन के वक्त बस बुरी लगने वाली बातें थी मेरे पास तुम्हें देने को और आज अंतिम विदाई के वक्त भी वैसी ही कुछ बातें। वह प्रथम मिलन जब तुम मुझे देखने घर आए थे और एकांत में तुम्हें अमन के बारे में बताया था। सुनकर ऐसा उतर गया था चेहरा तुम्हारा कि उस स्थिति में भी जब तुम अंजान थे मेरे लिए और मैं नहीं चाहती थी कि हमारा रिश्ता तय हो, मेरे हृदय में संवेदना की ऐसी लहर उठी कि आँखों की कोरों में पानी आ गया। उसी समय ही क्यों, जीवन में जब-जब प्रथम मिलन के क्षणों को याद किया है तुम्हारा वही चेहरा जीवन्त हो मुझ अपराधिनी की आँखों में आँसू भरता आया है। देखो, मेरे सिर की कसम है जो आज फिर से उतना उदास हुए इस अप्रिय सूचना को पढ़कर। देखो अपराधिनी तुम्हारी मैं हूँ न, तो चाहे मेरी फ्रेम की हुई सारी तस्वीरें फोड़ देना, चाहे मेरे निष्प्राण हो चुके शरीर को लातों से मार-मारकर अपना गुस्सा निकाल लेना मगर कसम है जो उदास हुए तुम तो।
क्या करती मैं आखिर? तुमलोगों को कितना समझाया कि कर लेने दो गुड्डी को विवेक से शादी, अरेंज मैरेज न सही कोर्ट मैरेज ही सही, क्या हुआ जो विवेक अपनी बिरादरी का नहीं, नहीं बुलाते शादी के बाद उन्हें घर में, कम से कम गुड्डी तो खुश रहेगी। पर तुमलोग तो जिद पर अड़े रहे - बेटी मर ही क्यों न जाए पर इज्जत पर कलंक न लगने पाए। झूठी शान का दंभ भरते लोगों से घिरे हुए तुम छोटी-सी बात भी कहाँ समझ पाते थे कि बेटी है तो हमारा परिवार हरा-भरा वृक्ष सा शोभायमान है, बेटी आत्महत्या कर ले तो उसी क्षण परिवार ढूंठ हो जाए, निष्प्राण हो जाए, सारी रौनक खत्म हो जाए। कितनी बार तो तुम्हें अलग-अलग दृष्टिकोणों से समझाने की कोशिश की और तुम समझ भी जाते थे कई बार। पर फिर तुम्हें अपने परिवारवालों का ख्याल आता, अपने दोस्तों का, अपने समाज का और फिर भूल ही जाते थे कि तुम पिता भी हो, तो क्या कर सकती थी मैं इसके सिवा कि कमरे का ताला खोल अपनी बेटी को स्वयं भगा दूँ ऐसे विष भरे समाज से दूर ।
जानती हूँ मेरा यह प्रयास निरर्थक होगा, क्योंकि "ऑनर किलिंग" के नाम पर तुमलोग उसे ढूँढने में पूरी शक्ति लगा दोगे और आज से पाँच साल बाद भी यदि उसका पता चला तो तुमलोग उसके पति और मासूम बच्चों के साथ उसकी हत्या करके ही चैन की साँस लोगे - चलो इज्जत पर लगा कलंक मिट गया। इसीलिए तो प्राण दे रही हूँ ताकि इन रक्त-पिपासु सगे-सम्बन्धियों की क्षुधा शान्त हो। जो अपनी भतीजी की, जो अपनी बहन की, जो मासूम बच्चों की हत्या कर सकते हैं वो भावनाहीन मनुष्य हैं और ऐसे भावनाहीन लोगों को क्या फर्क पड़ता है कि हत्या किसकी हुई है, उन्हें तो इसी बात में परम संतोष हो जाएगा कि उनके कारण हत्या हो चुकी।
हाँ, यह आत्महत्या नहीं, हत्या है क्योंकि आत्महत्या तो जीवन से पलायन का नाम है पर मेरा यह कदम तो बेटी के खुशहाल जीवन की ओर बढ़ा हुआ कदम है, इसे आत्महत्या कोई कैसे कह सकता है? आत्महत्या तो निराशा में डूबे लोग करते हैं पर मैं तो इस आशा में प्राणोत्सर्ग कर रही हूँ कि अपनी इस ब्रजभूमि में, जहाँ भिखारी राधे-राधे कहकर ही अपनी झोली फैलाते हैं, रिक्शावाले लोगों को रास्ते से हटाने के लिए घंटी बजाने की जगह राधे-राधे कहते हैं, अभिवादन के लिए लोग राधे -राधे कहते हैं, और जहाँ राधे-राधे कहकर मुक्ति पाने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं, मेरी मृत्यु के पश्चात् पूरी ब्रजभूमि न सही कम से कम अपने सगी-संबंधी इस राधा शब्द के पीछे छुपे हुए संदेश को समझ सकें। समझ सकें कि प्रेम का अधिकार नारी को भी है।
उम्मीद है कि मेरे बलिदान से वो समझ लेंगे। न समझ पायें तो उन्हें तुम समझा दोगे क्योंकि तुम तो समझ ही जाओगे। तुम न समझोगे मुझे तो और कौन समझेगा, क्योंकि प्रणय काल में मेरी आँखों की कोरों में बरबस उमड़ आए आँसू मेरे लाख प्रयत्न करने पर भी तुमसे कहाँ छिप पाते थे। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारी बेटी की आँखें जीवन-भर इन विरह-वेदना के आँसुओं का स्वाद चखती रहे, नहीं न।
आह, सीने में बहुत दर्द हो रहा है पता नहीं पुरानी बिसरी हुई बातें यूँ ताजा हो जाने के कारण या बेटी के संभावित क्लेश का अनुभव करने के कारण या जहर के प्रभाव के कारण अथवा तीनों के सम्मिलित प्रभाव के कारण। इसलिए, अब आज्ञा दो प्रिये।
तुम यह न सोचना कि मैं जीवन भर तुम्हारे साथ औपचारिकताएँ ही निभाती रही, हृदय से नहीं चाहा तुम्हें। सौगंध है मुझे पूरे जीवन में तुमसे ज्यादा किसी को नहीं चाहा पर मजबूर थी मैं। हृदय का जो कोना मेरे अधिकार में कभी नहीं रह पाया चाहकर भी वह तुम्हें अर्पित कैसे कर सकती थी। क्षमा कर देना इस अपराध के लिए प्रिये और अब अंतिम याचना पूरी करो मेरी सारे गिले-शिकवे भूलकर।
जैसे एक पिता चाहता है कि उसका पुत्र उसके जैसा ही गुणवान हो वैसे ही एक माँ चाहती है कि उसने जीवन में जो कष्ट झेले वैसे ही कष्ट उसकी पुत्री को न झेलने पड़े, मैं भी यही चाहती हूँ। उम्मीद है कि मेरी अंतिम चाह पूरी करने में तुम कोई कसर न उठा रखोगे।
चिर विदाई के लिए अंतिम प्रणाम।