अंतिम कील
अंतिम कील
"शास्ता ! तनिक ठहरिए।"
अपने विहार की ओर जाते हुए गौतम सन्न से होकर रूक गए, इस मृदु -मोहिनी स्वर में आज कातरता के पदार्थ घुले थे। गौतम ने उस स्त्री को मुड़कर देखा, यह यशोधरा थी। वे बोले, " यशु! 'शास्ता' कहा तुमने मुझे, अच्छा हुआ अपना हठ त्याग कर तुमने मुझे गौतम के रूप में स्वीकार कर ही लिया।"
"आप के प्रेम और साहचर्य की भागी तो मैं ना रही, पर आप के बिन जी नही मानता।अब आपके मार्ग का अनुसरण ही मेरे जीवन में प्रेम और साहचर्य का संबल है।" यशोधरा ने गौतम हो चुके सिद्धार्थ के सामने हथियार डाल दिया था।
"जैसी तुम्हारी इच्छा, मैं अपने आप को तुम पर नही थोपूंगा यशु। वैसे चाहो तो तुम राजमहल वापस भी लौट सकती हो।" और इतना कह कर गौतम अपने विहार की ओर चल पड़े।
"ठहरो सिद्धार्थ! क्या तुम मुझे 'यशु' कहना छोड़ पाए ?" यशोधरा के अश्रु भरे नेत्रों से निकला यह एक वाक्य गौतम के ज्ञान-पट पर कील सा जाकर गड़ गया।
" भिक्षुणी मेरे विपश्यना में बिलंब हो रहा है।अब तुम अपने विहार में जाओ।" गौतम अपने ज्ञान-पट से उस अंतिम कील को उखाड़ चले।