अनकहे रिश्ते

अनकहे रिश्ते

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रिश्तों को समझना क्या आसान है, नहीं जी नहीं, रिश्तों को समझना कितना मुश्किल होता है, मुझसे पूछिए जिसे इस कोशिश में 60 बरस लग गए। मैं आज तक यही मानती रही कि वक़्त - बेवक़्त पैसा ही काम आता है।पैसा हो तो भाई- बहन बेटे - बेटियां, नाते रिश्तेदार आपके साथ हैं। पैसा नहीं तो कोई नहीं पूछेगा।

हर हाल में पैसा जमा करना ही मानो मेरे लिए सबसे बड़ा काम हो गया।किसी जरूरतमंद को भीदेखकर मेरा दिल न पसीजता।

इसके विपरित मेरे पति एक दरियादिल इंसान हैं।एक दिन जब हम शॉपिंग के लिए निकले, 10-11 साल का लड़का मेले गंदे कपड़ों में, बस पीछे ही लग गया, " साहब, कुछ दे दीजिए दिन भर से भूखा हूं।"

मैं तो मुंह घुमाकर आगे बढ़ गई मगर जानती थी, विपुल को, बिना कुछ दिए आगे नहीं बढ़ेंगे। गुस्से के मारे मेरा दिमाग गरम हो रहा था

"अरे चलो भी, यह मंगते तो जगह- जगह टकराते हैं, कितनो की मदद करें ?"

विपुल तब तक उसे कुछ नोट पकड़ा चुके थे। मैं एक हिकारत की नजर डाले, आगे बढ़ गई।

ढेरों पैकेट लिए हम बाहर निकले कार में सब रख कर मैं मुड़ी, मेरे दुपट्टे को किसी ने खींचा, "अब कौन है ? क्या मुसीबत है ! मुड़कर देखूं तब तक तो कोई मेरा पर्स छीनकर भाग रहा था।

"चोर, चोर पकड़ो, पकड़ो।" चिल्लाती हुई मैं भी उसी ओर दौड़ी।

यह क्या! वह तो इतनी देर में ही गायब हो चुका था।विपुल कुछ समझ पाते उससे पहले ही वहीं लड़का मैले कुचैले कपड़ों वाला मेरा पर्स हाथ में पकड़े हांफ रहा था।

विपुल को देखकर मुस्कुराया, "दादा, वो..वो दीदी का पर्स..मैने उसको ऐसी टंगड़ी मारी की बच्चू 4 दिन तो घुटने सेकेगा।"

मैं शर्मिंदा थी, वह मेरी ओर मुड़ा, " लीजिए, दीदी।"मेरा उससे यह कैसा नाता था ? किसके लिए उसने यह जोख़िम उठाया ? मैं सचमुच पछता रही थी।

आगे बढ़कर मैने उसका हाथ थाम लिया।

"अपनी दीदी को अपने घर ले चलोगे ?"

नहीं जानती उस संबोधन में क्या था, कैसा एक अनकहा रिश्ता कायम हो रहा था !


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