अंगूर
अंगूर
शाम हो चली थी। मुझे पता था माँ पिता जी परेशान हो रहे होंगे। होने दो ! लौट कर नहीं जाऊंगा अब उस घर में। सारी जिंदगी क्लर्की में निकाल दी। एक मोटरसाइकिल तो खरीद कर दे नहीं पाए। अब चाहते हैं मैं भी उनकी तरह कहीं क्लर्क भर्ती हो जाऊं। मुझे अपने सपनों का खून नहीं करना। जो ट्रेन मिलेगी, बैठ कर कहीं दूर चला जाऊंगा।
सामने रेहड़ी पर अंगूर देख कर माँ की याद हो आयी। मुझे अंगूर बहुत अच्छे लगते हैं। महंगे हों तो भी थोड़े से मेरे लिए ले ही आती है। जेब में थोड़े से रुपये थे। यूँ ही पूछ लिया," अंगूर क्या भाव ?"
"सौ रुपया किलो-"रेहड़ी वाला बोला।
और ये दाना दाना
?- टूटे अंगूर के दानों की तरफ अंगुली कर के मैंने पूछा।
"पचास"- वो बोला।
ये क्या बात हुई भला ?
बात क्या ? अंगूर हो या आदमी, कुटुम्ब से अलग हो कर कीमत आधी रह जाती है बाबू - रेहड़ी वाला दार्शनिक अंदाज़ में बोला।
मैं चुपचाप घर की तरफ लौट पड़ा।