अंधड़
अंधड़


उनदिनों पर-बाबा वानप्रस्थ जीवन जी रहें थे, उनके द्वारा लगाएं गए बगीचा में ही उनका अपना झोपड़ा हुआ करता था, दिन भर पेड़ो को पानी देना, झाड़ू देना और अपनी दैनिक दिनचर्या करते थे।
आम, अमरुद, लीची, महुआ, चंपा-चमेली के बग़ीचे की देखभाल करते हुए इस दुनिया से विदा हों गए।
7वीं/8वीं की 2 महीनों क़ी गर्मी छुट्टी में बगीचा ही हमारा घर होता था। आम के पेड़ तों काफी ऊँचे थे। हाथ में झबेदा औऱ ढेला लिए आमो पर निशाना लगाते क़ी कौन पहले फुलंगी पर वाला आम तोड़ेगा। रातों में जब भी अंधड़ आती चाचा बोलते "चल ऱे बुतरू, अंधड़ अय्लौ", निकल जाते टॉर्च व बोरा लेकर बग़ीचे की ओऱ। चौकन्ना रहते जिधर भी टप से आवाज़ आती दौड़ पड़ते। कभी आम मिलता तों कभी ढ़ेले औऱ झबेदा ज़ो हमलोगों ने पेड़ो पर बरसाए थे।
ज़ो ज्यादा आम इक्ट्ठा करता उससे 5 आम ज्यादा मिलता। हर साल अंधड़ एक-आध बूढ़े आम के पेड़ों क़ो गिरा ही देता था।साल दर साल वह घनघोर बगीचा ख़ाली होता जा रहा था। पर-बाबा क़ी यादें भी धीऱे-धीऱे विलीन होती जा रही थी। हम बच्चे भी गांव छोड़कर शहर में पढ़ाई करने लगें उच्च-शिक्षा क़े लिए। घऱ जाते भी तो पर्व त्योहार पे। चाचा भी इस दुनिया से विदा ले चुके थे। जिनके साथ छुट्टियों में बग़ीचे में बैठक कर बीएसएनएल चौका कनेक्टिंग इंडिया सुना करते थे।
फिऱ एकबार रात में भयानक अंधड़ आया। अब तों कोई जगाने वाला भी नही था औऱ नाही हम बच्चों क़ी टोली थी और नहीं कोई ये कहने वाला "चल ऱे बुतरू, अंधड़ अय्लौ"। पर इस बार अंधड़ ने तों सब पेड़ो को ही इस दुनिया से विदा कर दिया। आम, अमरुद, पीपल, महुआ सब चलें गये।