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Ashish Kumar Trivedi

Drama

4  

Ashish Kumar Trivedi

Drama

अम्मा का बक्सा

अम्मा का बक्सा

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आज अम्मा की तेरहवीं के बाद मानव उनके कमरे में चला गया। अम्मा को सादगी से रहना पसंद था। अतः मानव के कहने पर भी उन्होंने कभी भी सुख सुविधा की चीज़ों के लिए हामी नहीं भरी। 

अम्मा शुरू से ही सादगी पसंद रही थीं। माथे पर सिंदूर की बड़ी सी बिंदी ही उनका श्रंगार थी। पर दस बरस पहले बाबूजी के जाने के बाद से उन्होंने सुख सुविधाओं से भी मुंह मोड़ लिया था। ये उनका अपना निर्णय था जिसे मानव आखिरी वक्त तक नहीं बदल पाया।

अम्मा किसी का सामान नहीं लेती थीं। पर उनकी हर वस्तु सबके लिए उपलब्ध थी। सिवा टीन के एक छोटे से बक्से के। उनका कमरा सदा खुला रहता था। लेकिन उस बक्से पर ताला लगा रहता था।

एक बार मानव ने इसका कारण पूछा था पर अम्मा टाल गईं। फिर मानव ने पूछना उचित नहीं समझा।

मानव आज उसी बक्से को देखना चाहता था। क्यों उसकी अम्मा जिन्होंने सदा अपने हिस्से की चीज़ दूसरों को बिना शिकायत दे दी इस बक्से को ताला लगा कर रखती थीं। उसने एक बार अम्मा को लकड़ी की अलमारी के ऊपर वाले खाने में चाबी रखते देखा था।

उसने ताला खोला। बक्से में एक दुशाला थी। पश्मीना शॉल थी। पर बहुत पुरानी। मानव ने कभी अम्मा को ओढ़ते नहीं देखा था। उसे हटाया तो नीचे कागज़ों का एक पुलिंदा मिला। कागज़ों पर कुछ लिखा था। ये सभी चिट्ठियां थीं। हर एक पर अम्मा की लिखाई थी। सभी बाबूजी को लिखी गई थीं। चिट्ठियों में दर्ज़ तारीख के हिसाब से उस समय की थीं जब बाबूजी का स्थानांतरण कलकत्ता हो गया था। अम्मा अपनी सास, एक कुंवारी ननद और तीन बच्चों की जिम्मेदारी संभालने के लिए घर पर थीं।

पहले मानव को संकोच हुआ कि अम्मा ने जिन खतों को छुपा कर रखा था वह उन्हें पढ़ने जा रहा है। पर वह जानना चाहता था कि आखिर उसकी अम्मा ने बाबूजी को पत्र लिखे तो पर भेजे नहीं। वह इनके ज़रिए बाबूजी से क्या कहना चाहती थीं।

दो साल की अवधि में लिखे गए कुल पंद्रह पत्र थे। मानव एक एक कर पढ़ने लगा। 

हर चिट्ठी की शुरुआत रज्जो के बाबूजी प्रणाम से हुई थी। रज्जो उसकी बड़ी बहन रजनी का घरेलू नाम था। बाबूजी के लिए अम्मा का सदैव यही संबोधन रहा था। पढ़ते हुए मानव को महसूस हुआ कि वो चिट्ठियां साधारण नहीं थीं। वह एक अकेली स्त्री के संघर्षों का गवाह थीं। उनमें उनकी तक‌लीफें थीं। अकेले पूरी गृहस्थी की ज़िम्मेदारी संभाल पाने की सफलता की खुशी थी। परिवार वालों की कुशलक्षेम थी। बाबूजी के लिए उनका प्यार और सम्मान था। उनसे कुछ अपेक्षाएं थीं। 

मानव नहीं समझ पाया कि क्यों ये खत लिखे तो गए पर पोस्ट नहीं किए गए। कोई पोस्ट करने वाला नहीं था या एक एक पाई बचाती अम्मा डाकखर्च भी नहीं जुटा पाईं। पर जो बात उसे सबसे उचित लग रही थी वह यह कि ये चिट्ठियां पोस्ट करने के लिए लिखी ही नहीं गई थीं। उनका मकसद तो कागज़ पर अपना दिल हल्का करना था।


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