अधेड़ उम्र और इश्क
अधेड़ उम्र और इश्क
"उम्र पर ही इश्क़ शोभा देता है। अपने पापा को देखो ये लाल -हरा टीशर्ट पहन जाने किसको रिझाने चल देते हैं। "
"क्या तुम भी उन्हें अच्छे से रहने -घूमने का शौक है। मम्मी के जाने के बाद अकेले पड़ गए हैं। उन्हें जो अच्छा लगे करने दो ना ! तुम क्यों इस उम्र में ऐसे बुजुर्गाना बातें कर रही हो। तुम तो बस हमसे बातें किया करोअपना तो उम्र भी है,और जुनून भी !"
"क्या आप भी ! मुझे बहुत से काम निपटाने हैं। "शिल्पा रसोई साफ़ करने में मशगूल हो गयी। और मेरे मन में सौ सवाल जगा गयी। क्या सचमुच पापा को प्यार हो गया है ?
तब तक कॉलबेल बजी। पापा हँसते हुए दाखिल हुए। व्यक्तिव तो गज़ब है उनका। 70 की उम्र में 60 के दिखते थे। उसपर से बातें करने का ढंग तो किसी पर भी उनका जादू चला दे। फिर हिम्मत कर पूछ ही लिया ।
"आप कुछ ज्यादा ही नहीं टहल रहे हैं आजकल ? मेरा मतलब मॉर्निंग वॉक काफी है ना ? "
"ना कुछ भी काफी नहीं ? तुमलोग व्यस्त रहते हो ना। फिर घर मे बैठ कर दीवाल क्यों ताकूँ। फिर बॉबी(पोता) वह भी तो हॉस्टल चला गया है। इसलिए तो सोसाइटी में जाकर उसके उम्र के बच्चों को देखता हूँ और खुश होता हूँ "
पापा की बातें बिल्कुल ठीक थीं। घर मे क्यों बंद रहते ? क्यों हम बड़ों को एक पारम्परिक वेशभूषा व एक कमरे में बंद देखना चाहते हैं। क्यों उन्हें हंसते -खेलते जीने नहीं देना चाहते ? अब अपने सवाल पर ग्लानि से भर उठा था।
"अच्छा करते हैं पापा ! जिंदगी से प्यार करना इसी को कहते हैं आपको जो अच्छा लगे वही करें। "मैंने उन्हें निश्चिन्त किया।
तब तक रसोई से बेग़म निकली। वैसे तो उनकी जुबान रोज़ ही कैंची सी चलती है पर धार आज ज्यादा ही तेज़ थी। छूटते ही बोल पड़ी :"प्यार जिंदगी से है या रौशनी आंटी से। "
" हा हा हा लाइक योर स्पिरिट बेटा !कम से कम बढ़कर पूछा तो मैं खुल कर बता देता हूँ कि रोशनी जिंदगी है उससे बातें कर मैं भी जी उठता हूँ। हम डिनर के बाद साथ टहलते हैं। जीवन से भरपूर हैं वो। मैने उनसे ही इस उम्र को भी ज़िंदादिली से जीना सीखा है। "
पापा की बातें सुनकर मेरा दिमाग चकराने लगा था। जबकि बेग़म विजयी मुस्कान देकर एक उलाहना भी सुना गई।
"आजकल ये चर्चा का विषय बना हुआ है कि रोशनी आंटी का बेटा विदेश में क्या बस गया ,यहाँ विधवा और विधुर प्यार करने लगे। मेरा तो बाहर निकलना ही बंद हो गया है। मुझे इन बातों से बहुत तकलीफ़ होती है। "अब फिर बेग़म का पलड़ा भारी था और मासूम बकरे सा मैं पिता के चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा था। मुझे पता था ये बातें यहीं खत्म ना होंगी। मुझे हलाल तो होना ही था। चाहे पिता करें या पत्नी ! !
"फिर बहु तुम सोसाइटी के लोगों से बोलो वो मुझसे बात करें। मैं क्या कर रहा हूँ यह सिर्फ मैं जानता हूँ। यूँ अटकलें लगाने से क्या होगा ? मैंने असमय ही जीवनसंगिनी को खो दिया। माता-पिता का प्यार अकेला ही देकर रितेश को बड़ा किया। इसी प्रकार रौशनी जी ने भी अपने बेटे को योग्य बनाया। रोने -धोने बैठ जाते तो बच्चों को कैसे देख पाते। अगर यही करना होता तो तभी करते। पर उस समय अपने बच्चों के विकास पर कुप्रभाव डालना हमारा उद्देश्य ना था। अब जबकि बच्चे खुश हैं और अपने आप मे व्यस्त हैं तो जबरदस्ती अपने बच्चों पर बोझ बनने की बजाय हम खुश हैं क्या ये हर्ष का विषय नहीं ? क्या हमने अपने किसी फ़र्ज़ में कोई चूक की है ? अगर हम निःस्वार्थ प्रेम अपने बच्चों से कर सकते हैं। अपने जीवनसाथी से कर सकते हैं तो इस उम्र के साथी से क्यों नहीं ? ? "
पिता की बातों से मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। सचमुच उन्होंने जो त्याग किया था उन सबको भूलकर लांछन लगाना सर्वथा अनुचित था। उन्हें शर्मिंदा करने के बजाय खुश होना चाहिए कि उम्र के किसी भी दौर में उन्होंने जीना नहीं छोड़ा। हिम्मत नहीं हारी। अपने -आप को जिंदा रखा। सच ! आज मुझे गर्व हो रहा था कि वो मेरे पिता हैं। एक बेहतरीन इंसान हैं वह। उन्होंने माँ से अपनी मर्ज़ी से शादी की थी। जब मैं कॉलेज जाने लगा था उनदिनों ही कैंसर की पीड़ा ने माँ की जान ली। कैसे उन्होंने संगिनी के विछोह को झेला होगा पर मज़ाल कि चेहरे पर कोई पीड़ा आने दी हो। तब मुझे संभालना उनका उद्देश्य था। पोते तक को संभालने में हमारी बहुत मदद की। अब जबकि उनके सभी कर्त्तव्यों के निर्वाह हो चुके हैं तब अपने लिए जीना गलत है ?
उन्होंने जिंदगी से इश्क़ किया था और अपने फ़र्ज़ों को इबादत की तरह पूरा किया था। क्या जीवन की आख़िरी पड़ाव में किसी से प्यार कर बैठे तो कोई अपराध कर दिया। माना प्रेम की परिणति विवाह है और उद्देश्य परिवार बढ़ाना। पर एक दूसरे का साथ देना ,बुढ़ापे में सहारा बनना गलत है ? आधी जिंदगी तक ही हमसफर का साथ मिला फिर बच्चों के सफर को ही अपना सफर बना लिया। अब अगर एक -दूसरे का साथ अच्छा लग रहा तो क्या उन्हें खुश रहने का हक़ नहीं ?
