आँचल (लघुकथा)
आँचल (लघुकथा)
स्कूल लगने की घंटी के साथ ही सब छात्र-छात्रायें कतारों में खड़े होकर ईश वंदना करने लगे। राष्ट्र गान जन गण मन की मधुर धुन के बजते ही अदब से सभी बिना हिलजुल के खड़े हो गये। अब आपके सामने नवम् कक्षा की आँचल आज का विचार पेश करेगी, अध्यापक के संबोधन को सुनकर सब तालियाँ बजाते हुये आँचल के स्टेज पर आने की प्रतीक्षा करने लगे। एक साँवली सी लड़की अपनी मधुर आवाज़ में बोली, परिवार !! और साथ ही रो पड़ी!! सभी हतप्रभ से आँचल को निहारने लगे। ये लड़की तो सदैव हँसती खिलखिलाती नजर आती थी, हरेक कार्य में निपुण ,आज आँसुओं भरी आँखों से बस एक ही शब्द परिवार कहकर चुप क्यों हो गई। सुबकती आँचल ने आँचल से भीगी आँखें पोंछते कहा, मेरा परिवार बिखर गया। मेरे दादा जी ने पापा को घर से निकाल दिया। दादा जी के बार-बार समझाने पर भी पापा ने मम्मी को सबके सामने मारना, गाली गलौच करना बंद न किया था। और शराब पीने से परहेज न किया। अचानक प्रिंसीपल ने पीछे से आँचल के कँधे पर हाथ रखकर उसे धैर्य बँधवाते कहा, तुम्हारे दादा जी ने तुम्हारे पिता को सबक सिखाने के लिये ऐसा किया है। तुम घबराओ मत! स्कूल एक मंदिर है और हम सब यहाँ एक परिवार की तरह हैं। और बेटा, तुमने अपने मन की बात बेझिझक सबके सामने कहकर सिद्ध कर दिया कि स्कूल बच्चों की दूसरा परिवार है। तालियों की गड़गडाहट के बीच आँचल मंद-मंद मुस्कुराने लगी और उसकी आँखों में एक नई उमंग तैरने लगी।