Sonia Chetan kanoongo

Drama Tragedy

4.8  

Sonia Chetan kanoongo

Drama Tragedy

आख़िर मेरी क्या खता है ?पार्ट 2

आख़िर मेरी क्या खता है ?पार्ट 2

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सुमन के बिना घर एकदम सुना हो गया था और सबसे ज्यादा कमी उनकी बहू रूप को खलती थी। क्योंकि सबसे ज्यादा वक़्त वो उन्ही के साथ बिताती थी। रूप हमेशा सुमन से कहती, "माँ आप चिंता मत करो हम है ना। आप अपना दुःख हमसे बाँट लिया करो"


पर हर इंसान की एक मर्यादा और एक अलग जगह होती है। वो दिल तो बहला लेती थी सबसे पर मन का एक कोना हमेशा उस खुशी को तलाश करता जिसकी वो हक़दार थी। पर शायद ये खुशी रमेश उसे कभी नहीं दे सकते थे।


सुबह सुबह के वक़्त सुमन का फोन उसके बेटे के पास आया। पास में ही रमेश पूजा में व्यस्त थे। जान बूझ कर शोभित ने फोन का स्पीकर चालू किया, ताकि रमेश अपने जीवन की कमी को महसूस कर सके।


"बेटा कैसे हो तुम ?"


"मैं ठीक हूँ माँ। वापस आ जाओ, आपके बिना ये घर खाने को दौड़ता है"


"नहीं बेटा बहुत मुश्किल से ये राह पकड़ी है मैंने, अब फिर से उसी जगह आकर नहीं खड़ा होना चाहती। पहली बार यहाँ मुझे सुकून की नींद आयी। कौन कहता है कि अजनबी अपने नहीं होते, कभी कभी अजनबी अपने हो जाते है। पहली बार यहाँ अपने मन की आह निकली मैंने अजनबियों के साथ, मैं अब अपनी आखिरी साँस यही लूँगी बेटा।


औऱ एक बात परसो तुम्हारे पिताजी का जन्मदिन है। जब तक मैं थी मैं बहुत कोशिश करती थी उन्हें किसी तरह खुश कर पाऊँ। तरह तरह के पकवान बनाती थी, कभी उनके मुँह से तारीफ़ नहीं सुनी और अब मुझे कोई उम्मीद भी नहीं है। तुम सब खुश रहो बस।"


"बेटा रूप तुम अपने हिसाब से कुछ अच्छा बना लेना"


मन में एक टीस सी उठी रमेश के, पहली बार अहसास हुआ कि वो अकेला है। सच तो था कितना ध्यान रखती थी मेरा, कभी एक शब्द नहीं निकाला मुँह से। हर बार मेरे जन्मदिन पर कितना पकवान बनता था। पर इतनी क्या ऐंठ की घर छोड़ कर चली गयी। औरत है अपनी मर्यादा नहीं जानती। उसे क्या लगता है कि मैं उसकी वजह से हूँ, वो मेरे रहमों कर्म पर थी। रहने दो अकेले।


पर रमेश को ये नहीं पता था कि सुमन अकेली नहींं हुई थी। वो अकेला हो गया था।

वक़्त बीतता गया औऱ रमेश अंदर ही अंदर घुटने लगा पर अहम इतना था कि झुकने को तैयार नहीं था।


उधर सुमन अपनी जिंदगी के उन लम्हों को महसूस कर रही थी जिसके लिए वो इतनी तरसी थी। खुली हवा उसके अंतर्मन में समा रही थी। 


इस उम्र में भी उसे वहाँ साथी मिल गए थे जिनके साथ वो अपने अच्छे बुरे पलो को साझा करती।


"हेलो क्या आप शोभित बोल रहे है सुमन जी के बेटे"


"जी हाँ"


"आप निर्मल हॉस्पिटल आ जाइये आपकी माँ की तबियत ठीक नहीं है"


"रूप जल्दी करो हॉस्पिटल जाना है। माँ की तबियत खराब है",


"मैंने कहा था ना आखिर जरूरत पड़ ही गयी उसे हमारी, बहुत कहती थी मैं अकेली रह लूँगी"


"आपको इस वक़्त भी ये बातें सूझ रही है पापा। माँ हॉस्पिटल में है चलना है साथ तो चलो वरना मैं जिंदा हूँ अभी। काश मैं भी ये घर छोड़ के माँ के साथ चल गया होता तो आज उनका ध्यान रख पाता"


"माँ कहाँ है, सुमन नाम है"


"207 में है। अभी चेक अप चल रहा है आप बाहर रुकिए"


जैसे ही डॉ बाहर आई।


"डॉ मैं इनका बेटा, क्या हुआ है माँ को"


"आप मेरे साथ आइये"


"जी डॉ"


"पहले इनका इलाज कौन से हॉस्पिटल में चल रहा था?"


"जी मतलब? माँ तो बिल्कुल ठीक थी। किसी हॉस्पिटल में कोई इलाज नहीं चल रहा था। बस थोड़े वक़्त के लिए तबियत खराब हुई तो माँ खुद पास के अस्पताल में दिखाने गयी थी। बाकी कुछ नहीं"


"आपकी माँ को कैंसर है वो भी आखिरी स्टेज़ उनके पास वक़्त बहुत कम है। उनका ध्यान रखिये"


"अरे शोभित तू यहाँ? अरे रो क्यों रहा है? मैं ठीक हूँ बिल्कुल ठीक"


"झूठ बोला आपने मुझसे। क्यों छुपाया, क्यो नहीं बताया?"


"पापा के किये की सज़ा मुझे दी आपने"


"नहीं बेटा ऐसा नहीं है। मैं क्या करती तुम्हे बता कर और बोझ बन जाती तुम पर। मुझे पता चला कि मुझे कैंसर है, तो सोचा तुम्हारे पापा को बता दूं। पर इस डर से नहीं बताया कि कही वो मुझे ये ना कह दे कि अब तुम्हे ठीक करने के लिए पैसा कहाँ से लाऊँगा? बोझ नहीं बनना चाहती थी मैं तुम सब पर। जिस बीमारी का कोई इलाज ही नहीं उसके लिए तुम्हे क्यों तड़पाती। पर फिर मुझे समझ आया कि शायद ये भगवान का इशारा है कि जितने दिन मुझे मिले जिंदगी में मैं अब खुद के लिए सुकून से जियूँ और ये तेरे पापा के साथ रहकर तो हो नहीं पाता था। इसलिए मैंने ये फ़ैसला लिया"


रमेश दरवाजे पर खड़ा सुन रहा था। आज उसके जीवन की ये सबसे बड़ी हार थी। उसे तो भगवान ने माफ़ी मांगने के लायक भी नहीं समझा। शायद ये उसके जीवन की सजा मुक्कमल हुई थी, जो उसे भोगनी थी ताउम्र।


"बेटा मेरी आखिरी इच्छा है मैं अपनी अंतिम साँस आश्रम में ही लूँगी। मैं उस घर में नहीं जाऊँगी और मेरी सारी कर्म आश्रम से ही हो। मेरी विदाई भी, ये मेरी इच्छा है जिसे तुम्हे पूरा करना है"


कुछ समय के बाद आश्रम में सुमन की मौत हो गयी और वो चिरनिद्रा में हमेशा के लिए चली गयी। पर जाते जाते उसने कुछ वक्त अपनी किस्मत से सुकून के चुरा लिए और रमेश को जिंदगी भर अपने किये के लिए पछ्तावा करना पड़ा।


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