Anil Garg

Tragedy

3.7  

Anil Garg

Tragedy

आधी रात का कोलाहल

आधी रात का कोलाहल

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रात के 2 बज रहे थे और बाहर बरामदे में पिताजी रोज की तरह जोर जोर से खांस रहे थे। पूरी पूरी रात ऐसे ही उनकी खांसते हुए गुजर जाती। उनकी खांसी से मैं इसलिए परेशान नहीं हो सकता था क्योंकि वो मेरे पिता थे लेकिन पडोसी और यहाँ तक की मेरी घरवाली भी उनकी खांसी से परेशान हो जाते थे। जब काफी देर तक पिताजी की खांसी नहीं रुकी तो मैं उठकर उन्हें पानी देने के लिए जाने लगा क्योकि अब ऐसा लग रहा था कि खांसते खांसते पिताजी का गला भी सूख गया है।

मैं उठा ही था कि मेरी धर्मपत्नी कूंनमुनाने लगी।

"पूरे दिन घर का काम पीटो और रात को चैन से सो भी नहीं सकते'

मैंंने एक बार उस पर नजर डाली और मैं चुपचाप बाहर की और चल दिया। मैं अपनी धर्मपत्नी की आदत जानता था अभी उसने कुछ देर ऐसे ही बड़बड़ाना था।

मैं पानी का लोटा उठाया और पिताजी के पास चला गया।

'लो पिताजी पानी पी लो, लगता है आज फिर तुम दवा नहीं खाये हो। "

पिताजी ने पानी का लोटा ले लिया और थोड़ा सा पानी पी लिया।

"रमेश बेटा तुम क्यों अपनी नींद खराब करते हो, बेटा पानी का लोटा यही चारपाई के नीचे रख दिया करो"

"नहीं पिताजी, मुझे कोई परेशानी नहीं होती, आपकी सेवा करके तो मुझे ख़ुशी मिलती है। "

"जानता हूं बेटा, मेरी वजह से सब परेशान होते है, न में खुद सोता हूँ न दुसरो को सोने देता हूँ। "

"पिताजी कल सुबह मेरे साथ सिटी हॉस्पिटल चलना वहां किसी अच्छे डॉक्टर को दिखाता हूँ।

"अरे बेटा अब क्या हॉस्पिटल के धक्के खाने! अब तो चला चली की बेला है, पता नहीं कब भगवान् का बुलावा आ जाये। "

"कैसी बाते करते हो पिताजी अभी तो बिट्टो की शादी आपके आशीर्वाद से ही होगी। "

"जा बेटा सो जा अब, बहू भी परेशान हो रही होगी, मेरा क्या है मुझे तो पता नहीं कब नींद आएगी। "

"ठीक है पिताजी मैं जा रहा हूँ सोने आप भी सोने की कोशिश करो। "

ये कहकर मैं भारी कदमों से भीतर आ गया। श्रीमती जी बिस्तर पर करवटे बदल रही थी, मैं चुपचाप जाकर उसके साथ लेट गया। अभी तत्काल नींद आना मुश्किल था। बाहर पिताजी की खांसी फिर से चालू हो गयी थी। अम्मा को गुजरे हुए 3 साल हो चुके थे। उसके बाद पिताजी अकेले से पड़ गए थे। इधर काम का बोझ बढ़ने से श्रीमती जी का स्वभाव कुछ चिड़चिड़ा सा हो गया था। और मेरी बेटी बिट्टो को तो अपने कॉलेज के संगी साथियो से ही फुर्सत नहींं थी और में भी सुबह 8 बजे पापी पेट के लिए घर से निकलता था और रात को 9 बजे ही वापस आता था।

किसी के पास भी पिताजी के पास बैठने की 2 घडी की फुर्सत नहींं थी । इसलिए अम्मा के गुजरने के बाद पिताजी खुद को बहुत अकेला महसूस करते थे और मुझे पता था कि हर रोज दिन में दस बार खुद को उठाने के लिए भगवान् से प्रार्थना करते थे।

जैसे तैसे सोचते सोचते मुझे नींद आ गई, शायद पिताजी भी सो गए थे। इधर बिट्टो की माँ के खराटे शुरू हो चुके थे जो की पिताजी की खांसी से भी ज्यादा खतरनाक थे।

अगले दिन सोकर उठने के बाद वही रोज की दिनचर्या। श्रीमती जी की रसोई में बिट्टो के ऊपर चिल्लाने की आवाजे आ रही थी और मैं काम पर जाने की जल्दी में भूल ही गया था कि रात को पिताजी को हॉस्पिटल ले जाने के लिए बोला था।

मैं काम पर चला गया। पिताजी मुझे जाते हुए देखते रहे उन्होंने एक बार भी मुझे नहींं रोका की बेटा रात को तूने डॉक्टर की दिखाने को बोला था तो मुझे अब हॉस्पिटल ले चल। पिताजी ने शायद अब खुद को वक़्त हालात और भगवान् के भरोसे छोड़ दिया था।

मैं रात को घर आया तो पिताजी बरामदे में ही अपनी चारपाई पर लेटे हुए थे। मुझे देखते ही उन्होंने आवाज देकर मुझे अपने पास बुलाया।

"बेटा रमेश जरा सुनना।"

"जी पिताजी।"

"बेटा तेरी नजर में कोई वृद्ध आश्रम हो तो मुझे वहां छोड़ आ"

पिताजी के ये बात सुनकर मैं अवाक सा उनकी ओर देखने लगा।

" क्यों पिताजी आपको यहाँ कोई तकलीफ है जो आप ऐसी बाते कर रहे हो।"

"नहींं बेटा मुझे तो कोई तकलीफ नहींं है लेकिन मेरी वजह से यहाँ सभी को परेशानी है, मैं बूढ़ा बीमार रात रात भर खांस खांस कर तुम लोगो को सोने भी नहींं देता"

"तो क्या हुआ पिताजी अब हारी बीमारी किसी के हाथ में तो है नहींं, ये तो सभी के साथ है, आज आप के साथ है कल को किसी के भी साथ हो सकती है, इसका मतलब ये नहींं है कि सबको आश्रम में छोड़ कर आया जाए।

पिताजी मेरी बात सुनकर अब निरुत्तर हो चुके थे।

" पिताजी गलती तो मेरी है जो सही से आपका इलाज़ नहीं करवा पा रहा हूँ, आज सुबह भी आपको हॉस्पिटल ले जाना भूल गया, मैं कल सुबह अवश्य तुम्हे हॉस्पिटल लेकर जाऊँगा, मैं कल की काम की छुट्टी कर लूंगा"

"ठीक है बेटा, जैसे तेरी मर्जी, जा बेटा खाना खा ले सुबह से थक हार कर आया है।"

"ठीक है पिताजी।"

मैं उठकर भीतर कमरे में चला गया। श्रीमती जी एक थाली में खाना परोस कर बिट्टो के कमरे के चली गयी। खाना खाकर मैं लेट गया । वो रात भी ऐसे ही गुजर गयी। पिताजी की खांसी अविरल रात भर जारी रही। अगले दिन सुबह मैं पिताजी को लेकर हॉस्पिटल चला गया। कुछ टेस्ट करने के बाद उन्होंने पिताजी को टीबी होने की आशंका जताई और पिताजी को हॉस्पिटल में भर्ती करने को बोला। मैंंने भागदौड़ करके पिताजी के भर्ती के कागजात बनवाये और पिताजी को हॉस्पिटल में भर्ती करवा दिया। अब समस्या ये थी की रात को तो हॉस्पिटल में मैं रुक सकता था लेकिन दिन में कौन रुकता। मैंंने घर पर फ़ोन करके पिताजी के एडमिट होने की बात बता दी जिसे सुनकर श्रीमती जी ने राहत की सांस ली।

पिताजी को वार्ड में शिफ्ट कर दिया गया था। बुढ़ापे की सभी बीमारियो ने पिताजी को घेर लिया था। अस्थमा टीबी शुगर बीपी सभी कुछ टेस्ट रिपोर्ट में आ चुका था।

मैं पिताजी को बोलकर घर से कुछ खाना और जरुरत का कुछ सामान लेने घर चला गया। मुझे लग रहा था कि काफी लंबा समय पिताजी को हॉस्पिटल में भर्ती रहना पड़ सकता था। घर हॉस्पिटल ऑफिस अब तीनो में कैसे अपने को एडजस्ट करू यही सोच सोच कर मेरा दिमाग भन्ना रहा था।

पिताजी को होस्पिटल में भर्ती करवाये हुए एक हफ्ता बीत चुका था लेकिन उनको अभी कोई आराम नहीं पड़ रहा था। अस्थमा की वजह से उनको साँस लेने में भी परेशानी होने लगी थी। खांसी तो उनकी बदस्तूर जारी थी। रात को मैं हॉस्पिटल में रुक जाता था और दिन बिट्टो और उसकी माँ आ जाती थी घर का काम निपटा कर और दोपहर का खाना पिताजी के लिए लेकर। उधर मैं ऑफिस में रोज रोज लेट हो रहा था जिसकी वजह से बॉस की त्योरिया भी अब हर समय चढ़ि रहती थी।

उस दिन मैं ऑफिस में कुछ फाइल में उलझा हुआ था कि ऑफिस के नंबर पर मेरे लिए फ़ोन आया। उधर से बिट्टो घबराई हुई बोल रही थी। किसी अनहोनी की आशंका से मेरा मन काँप रहा था। मैंंने कांपती हुई आवाज में बिट्टो से पूछा क्या हुआ।

"पापा दादाजी हॉस्पिटल में नहीं मिल रहे है, हमने सारा हॉस्पिटल ढून्ढ लिया लेकिन दादाजी का कही पता नहीं चल रहा" बिट्टो बहुत घबराई हुई थी।

"क्या, ऐसा कैसे हो सकता है, वो तो चल फिर भी नहीं सकते, इतने कमजोर हो चुके है वो कहाँ जा सकते है"

"पापा सच बोल रही हूँ दादाजी हॉस्पिटल में नहींं है आप जल्दी यहा आ जाओ, मम्मी भी बहुत परेशान है"

"ठीक है मैं होस्पिटल आ रहा हूँ, तुम घबराओ मत" मैंंने बिट्टो को दिलासा दी।

मैंंने अपने बॉस को सारी बात बताई उसने भी मेरे साथ सहानुभूति दर्शाई और कुछ पैसे मुझे देते हुए बोले की रख लो काम आएंगे। उस एक पल में ही मेरे बॉस से सारे गीले शिकवे खत्म हो गए। मैं हॉस्पिटल के लिए ऑफिस से निकल गया।

हॉस्पिटल पहुंचा तो वहां श्रीमतीजी अपने सिर पर हाथ रखकर बैठी हुई थी। उसके साथ बिट्टो भी उदास सी बैठी थी।

"क्या हुआ कहा गए पिताजी"मैं बदहवास सा बिट्टो से पूछ रहा था।

"पता नहींं पापा, मैं और मम्मी जब थोड़ी देर पहले खाना लेकर पहुचे तो दादाजी अपने बेड पर नहींं थे, हमने थोड़ी देर उनका यही इंतज़ार किया लेकिन जब दादाजी नहींं आये तब हमने उन्हें ढूढ़ना शुरू किया लेकिन वो कही भी नहीं मिले।"

बिट्टो की बात सुनकर मैं और ज्यादा चिंतित हो गया था। मैंंने नर्स वार्डबॉय डॉक्टर सब से मत्था मारा लेकिन कही से कोई खबर नहींं लगी। इस तरह अचानक बिना बताए उनका हॉस्पिटल से यू चले जाना मुझे अजीब लग रहा था जबकि वो इतने बीमार थे इतनी बीमारी में वो कहा जा सकते थे। मैं इसी चिंता में डूबा हुआ था कि श्रीमती जी का बड़बड़ाना शुरू हो गया।

"अब क्या जवाब देंगे लोगो को, सारे रिस्तेदार पूछेगें की क्या हमने पिताजी की सम्हाल नहीं की जो वो ऐसे बिना बताये लापता हो गए, बिना बात का कलंक लग गया माथे पर"

बात तो सही थी लेकिन अभी ये सब सोचने का वक़्त नहीं।

था। लेकिन सबसे पहले मुझे उन्हें ढूढ़ना था। उनकी तलाश करनी थी लेकिन मैं एक दोराहे पर खड़ा था मुझे समझ ही नहींं आ रहा था की क्या करूँ। मैंंने अब अपने रिस्तेदारो में फ़ोन करने शुरू किये लेकिन वो कही भी नहीं पहुचे थे। जहाँ तक मुझे पता था उनकी हालत ऐसी नहीं थी की वो किसी के घर जा सके। शायद वो हॉस्पिटल से निकले हो और रास्ते में उनके साथ कोई अनहोनी हो गयी हो। ऐसी आशंका के जेहन में आते ही मेरा मन काँप गया। घर पहुंचे तो अडोस पड़ोस में ये खबर जंगल में आग की तरह फैल गयी की रमेश के पिताजी हॉस्पिटल से गायब हो गए। लोगो ने अब बाते बनानी शुरू कर दी। जितनी मुँह उतनी बाते। कहते है आप मारने वाले का हाथ पकड़ सकते है लेकिन किसी की जुबान नहीं पकड़ सकते। मैं रात को एक बार फिर हॉस्पिटल की ख़ाक छानने गया लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। पिताजी का कोई अतापता नहीं था। मैं थक हार कर घर वापस आ गया।

अगले दिन सुबह रिश्तेदार आने लगे। मैं अपने कुछ रिश्तेदारों के साथ फिर से उन्हें ढूढ़ने निकल पड़ा। उस दिन हमने आसपास के लगभग सभी अस्पतालों में उनकी तलाश की लेकिन पिताजी कहीं भी नहीं मिले। मैंने सिटी हॉस्पिटल के पास वाले थाने में पिताजी की गुमशुदगी की रिपॉर्ट भी लिखवाई लेकिन अभी तक इन सारी कोशिशो का नतीजा कुछ हासिल नहीं हुआ था। ऐसे ही एक हफ्ता बीत गया अब रिस्तेदार भी आना बंद हो गए थे। मेरा ऑफिस जाना भी हाल फिलहाल बन्द था।

उस दिन मेरे मामाजी का लड़का और मैं सफदरजंग हॉस्पिटल में पिताजी को ढून्ढ रहे थे। तभी हमे एक पुलिस वाला मिला जो लावारिस लाशो के अंतिम संस्कार की देखरेख करता था। हमने बड़े भारी मन से उसे अपने पिता की फोटो उन्हें दिखाई। उसने फोटो देखते ही जो बोला उससे मेरे पैरों की जमीन खिसक गयी।

उसने बोला की मेरे पिताजी का शव एक हफ्ते पहले उन्हें इसी अस्पताल के पार्क की रैलिंग के पास मिला था। एक हफ्ते तक जब कोई उनकी खोज खबर लेने नहीं आया तो आज उनकी लाश को अंतिम संस्कार के लिए राजघाट पर जो विद्दुत शव ग्रह है उन्हें अभी एक घंटा पहले ही वहां भेजा है।

पिताजी को गुजरे हुए एक हफ्ता हो चुका था। हम दोनों भाई राजघाट की और दौड़े, शायद पिताजी को मेरा कन्धा नसीब होना लिखा था, तभी बिलकुल आखिरी पलों में हमें उनकी खबर लगी थी। हम लगभग 1 घण्टे बाद राजघाट पहुचे और वहां के इंचार्ज तुली साहब से मिले और उन्हें पूरी बात से अवगत कराया, तुली साहब एक नेकदिल इंसान थे। जब मैंंने उन्हें कहा कि एक बार कम से कम बच्चे अपने दादाजी के अंतिम दर्शन तो कर लेंगे तो उन्होंने ये सुनकर हमें शव को ले जाने की अनुमति दे दी। मैंंने घर पर फ़ोन करके सारी बात बताई और उन्हें बताया कि मैं पिताजी का शव लेकर घर आ रहा हूँ। ये सुनते ही घर में कोहराम मच चुका था। मैं शव वाहन में पिताजी को घर की ओर लेकर चल दिया। अब सब कोलाहल शांत हो चुका था अब पिताजी की खांसी किसी को परेशान करने वाली नहीं थी। मैं निर्विकार भाव से एकटक पिताजी की और देखे जा रहा था। उनकी एक मौत ने कितने लोगों का कोलाहल शांत कर दिया था।


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