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Kamal Purohit

Abstract

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Kamal Purohit

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ज़िंदगी

ज़िंदगी

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170


बाते वो प्यार से मेरी सुनती कभी कभी

बेवजह जाने क्यों थी वो लड़ती कभी कभी।


कल रात जब कमल खिले अहसास ये हुआ

अँधकार में भी ज़िन्दगी खिलती कभी कभी।


आशा के दम पे जी रहे सब लोग है यहाँ

आशा भी सुना है मगर मरती कभी कभी।


अद्भुत ज़हान, लोग भी अद्भुत सभी हुए

क्यों एक दूसरे की न बनती कभी कभी।


चलते रहें है काफ़िले दिन रात तो कईं

मंजिल मगर कुछ एक को मिलती कभी कभी।


आसान तो बहुत कटे जीवन का ये सफ़र

मुस्कान अगर लब पे हो खिलती कभी कभी।


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