ज़िद
ज़िद
आज गिरा हूँ, तो कल उठ जाऊँगा
चल कर नहीं उन्हें दौड़ कर दिखाऊँगा
मानूँगा नहीं हर बात मानवाऊँगा
यूँ ही नहीं कुछ कर के दिखाऊँगा
काम करूँगा बहाने न बनाऊँगा
सूरज से पहले मैं उठ जाऊँगा
अपनी कहानी मैं ख़ुद लिख जाऊँगा
यूँ ही नहीं कुछ कर के दिखाऊँगा
सुनकर ये गालियाँ मैं चुप रह जाऊँगा
किसी की भी बात को न दोहराऊँगा
रात की बात को, सुबह की डाँट को,
बीच में न लाऊँगा
यूँ ही नहीं कुछ कर के दिखाऊँगा
जीत से, हार से, उनकी फँटकार से,
तेरी दरकार से, बीती हुई बात से,
काटी हुई रात से, ऊपर उठ जाऊँगा
यूँ ही नहीं कुछ कर के दिखाऊँगा
इतनी बात को उतना न बनाऊँगा
किसी याद में न रुक जाऊँगा
अपनी सोच का दायरा न बनाऊँगा
यूँ ही नहीं कुछ कर के दिखाऊँगा
वक़्त को वक़्त का मतलब समझाऊँगा
डर की दीवार से कूद कर दिखाऊँगा
औरों को नहीं मैं ख़ुद को सिखाऊँगा
यूँ ही नहीं कुछ कर के दिखाऊँगा