यही तो है स्त्री
यही तो है स्त्री


अबला महिला औरत नारी
कई नामों से जानी जाती
मॉं, पत्नी और बहन, बेटी
कई रूपों में नजर आती
लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, देवी
जानें कितनी उपाधियां मिल जाती
फिर भी लोगों की नजर में
आज भी एक वस्तु कहलाती
यह पानी की तरह तरल
स्वच्छ और पारदर्शी होती
हर त्याग पूरें मन से करती
ना जाने कितनों से छली जाती
पर उफ़ तक नहीं करती
बहुत खुश जो होती है
तो थोड़ा सा रो लेती है
कुछ लोग इसें कोरा कागज कहतें
कुछ कहतें हैं पूरी किताब
पर जब झाकों इसके अंदर
यह त्याग करती बेहिसाब
तभी तों गढ़ी जाती है
ये जरूरत के हिसाब से
और कभी गढ़ दी जाती है
बदनामी के हिजा़ब से
अपने दायित्वों में सदा निमग्न रहकर
विविध रंगों का सृजन करती है
इंद्रधनुषी रंगों की तरह
हरपल जीना चाहती है
अपने सुनहरे विचारों व कर्मो से
अपना अस्तित्व गढ़ना चाहती है
सारे नियम व्रत परंपराओं को
वह मन से निभाती है
पुरूषों के सर पर हाथ रखती
कभी सीनें पर हाथ रखकर
उसका मन टटोलती है
दुख में हो वों तो धीरज बंधाती
आगे बढ़ने के लिए
हौसले तक बढ़ाती है
कभी राह दिखातीं
कभी प्रेरणा बन जाती है
अपनों के किसी भूल का
हमेशा दंड वो चुकाती है
सफाई देने के बजाय
चुप वो हो जाती है
जिंदगी की मुश्किलों से
वो हमेशा लड़ जाती है
जानें कितने आंखों के आंसू
वह तो पी जाती है
वह पढ़ लेती है नजरों से
नजरों की हर भाषा
कहां हर कोई समझ पाता
इसके रूह की भाषा
कोई ना दे पाता
इसके मन को दिलासा
फिर भी अपने मन में जगाती
नए उमंगों की आशा
प्यार सम्मान में जी उठती है
सच्चे रिश्तों से महक उठती है
ना हो कर भी हर लम्हा
सबके संग-संग रहती है
कुछ भी कह देते लोग पर
हर चीज में खुश हो जाती है
हर रिश्तें संग अपने
सपनें संजो लेती है
तकलीफों से डटकर बिन कहे
हॅंसकर सब सह लेती है
अबला नहीं सबला बनकर
कमजोरी का कलंक मिटाती है
कभी दिल से प्यार से
कभी दिल रखने के लिए
श्रृंगार यह कर लेती है
यह तो सामान्य सा
सम्मान पाना चाहती है
यह पूरी तरह ना लिखी जा सकी
ना पूरी तरह पढ़ी जा सकी
और ना ही कभी समझी जा सकी है
फिर भी यह संपूर्ण है
और स्त्री कहलाती है
कभी सख्त कभी नरम
जिंदगी भर जिंदगी से
लड़ने का जज्बा रखती है
हाॅं यही तो है एक स्त्री
जों स्त्री कहलाती है।