"वसुधैव कुटुम्बकम"
"वसुधैव कुटुम्बकम"
जाति धर्म से बढ़कर मानवता,
जो सच में जीना बतलाए।
एक दूजे को जोड़े मनुजता,
वसुधैव कुटुम्बकम बन जाए।।
धन, दौलत, पद, प्रतिष्ठा,
सब यहीं धरा रह जाता है।
मृदु वाणी व प्रीत से जग में,
वसुधैव कुटुम्बकम हो जाता है।।
वृक्ष कभी न भेद करे,
सबको खाने को फल देता है।
सरिता ख़ुद का जल न पीये
सबकी प्यास बुझाता है।।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
फूल सभी का घर महकाते।
हवा सभी को ठंडक दे,
बादल सर्वत्र ही जल बरसाते।।
दीपक सभी का घर रोशन करता,
वसुधैव कुटुम्बकम की बात बताए।
धरती सब के लिए अन्न उगाता,
सूरज जग को रोशन कर जाए।।
नीले आसमान के नीचे ही,
हम सब अपना घर बनाते है।
तिनके तिनके के लिए लड़ाई,
हमें इसे समझ न पाते हैं।।
सभी को प्रभु सुख दुःख देता,
सबको दे जीवन में प्रकाश।
चंद दिनों के लिए आते जग में,
अपनों पर न करें हम विश्वास।।
संपत्ति व निज स्वार्थ में,
आपस में ही लड़ जाते हैं।
भाई भाई का बना है दुश्मन,
वसुधैव कुटुम्बकम न अपनाते हैं।।