वसुधैव कुटुम्बकम
वसुधैव कुटुम्बकम
भले तृण के रेशों से, बना मेरा घर रहे।
सौहार्द व आत्मीयता,सदा उसमें मगर रहे।
नव विचारों से सुसज्जित, अपना सा आभास हो।
जब पुकारूँ दूर से भी, बस तेरा अहसास हो।
नव कपोलों से सजी फिर, सदा मेरी डगर रहे।
भले घास...
सौहार्द...
वसुधैव कुटुम्ब की सदा, हो हृदय में भावना।
तप अपर्णा सम करूँ बस, उर को अपने साधना।
स्माही से प्रगति पथ पर, राह अग्रसर निडर रहे।
भले घास...
सौहार्द...
सीमित-सी भले हो देहरी, मान और सत्कार हो।
हो सूक्ष्म सी जगह पर, दिल में उपजा प्यार हो।
तलहटी पे इस घरौंदे, हरा-सा एक शज़र रहे।
भले घास....
सौहार्द...
