गंगा के उद्गार
गंगा के उद्गार
धरा की अकाल व्यथा मिटाने
भगीरथ पुकार सुनकर,
शिव जटा से प्रस्फुटित हुई
सृष्टि का वरदान बनकर।
गौमुख देवभूमि से उद्गम अंग,
मंदाकिनी अलकनंदा के बही संग।
पाषाणों को तोड़ बही अविरल,
पापों को धोती अनवरत अचल।
बहते-बहते कितने घाव हिय सही,
मानव वंशज तुमसे मैं हार गई।
माँ कहकर देखो सब मुझे बुला लें
फिर क्यूँ मुझमें गरल विनाशक डालें।
मेरे पावन अस्तित्व का अमृत क्षीर,
क्यूँ बोल बना है अब विष का तीर।
मेरे तटों को मानव तीर्थ कहें,
उस रेत जिगर को ही तुम बेच रहे।
मैं प्रदुषण का दंश हूँ झेल रही,
अश्रुपूरित कष्टों संग कैसे बही।
दिल्ली के दिल में सब देते उपदेश,
उद्धार हेतु देते राजनीतिक संदेश।
हर नगर राज्य मैं विचरण कर रही,
करनी से व्यथित तेरी मैं रूग्ण हुई।
करना था पवित्र अमृत सम संकल्प हित,
दुर्दशा ऐसी की अब कर रही संताप नित।
जो विलुप्त हुई धरा से तो फिर न आऊँगी,
श्रापित निर्जन मरुस्थल इसे कर जाऊँगी।
अन्न के हर कण को मनुज तरस जाएगा,
सोच फिर क्या धरा पर जीवन रह पाएगा।
मेघ भी फिर व्योम से क्या बरसेंगे ?
नीर की हर बूँद को पाने मनुष्य तरसेंगे।
वक्त रहते मेरे अस्तित्व को स्वच्छ बनाना,
प्रण मेरा पुनः राष्ट्र में अमृत सोम बहाना।