वस्ल ए यार
वस्ल ए यार
वो वस्ल ए यार की ख्वाहिश, ये फ़ासलों की ख़लिश,
सर्द तनहाइयों में दहकती - सुलगती यादों की तपिश
ज़र्रा-ज़र्रा पिघलता है मेरा, उनकी आँखों की छुअन से,
फुहार ए चाहत, तो कभी बरसे बनकर इश्क़ ए आतिश
ख़्यालों से गुजरना भर उनका और इत्र सा महकना मेरा,
ज़िंदा रहने को काफ़ी है, बस इतनी कुर्बत की नवाजिश
रंगीनियाँ समेटे हैं, खुली पलकों में ख्वाबों के कहकशा
अब ये जिम्मा उनका कि दरम्यान न आए दौर ए गर्दिश
चहलक़दमी करती उनकी आरज़ू, दिल की ज़मीन पर,
उफ़्फ़! अरमानों की बग़ावत, रस्मों रिवाजों की बंदिश
जुनून हद से गुज़रता, ख़िलाफ़ हालातों की ये साज़िश
मिलो तो ज़िंदगी हासिल, न मिलो तो खुद ही से रंजिश।