वक़्त
वक़्त
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अंतर्मन की पीड़ा जब भी आग लगाने लगती है,
ख़ुद को ख़ुद की परछाई भी रोज डराने लगती है।
तप्त धरा पर धीरज धारे मूक कोई जब बैठा,
प्यास पपीहे की बदली से आस लगाने लगती है।
तन के कपड़े ताना देते, जीभ दिखाते जूते,
जुराबें भी नाक पकड़ कर दूर भगाने लगती हैं।
बुरे वक्त में चौखट,खिड़की सारे हँसते देखे,
दीवारें भी कान हटाकर बात बताने लगती हैं।
सो जाता हूँ रोज़ सुकूं से ले ख्वाबों की चादर,
नींद नहीं आती तो माँ की याद सताने लगती हैं।