वो
वो
वो नहीं रही,
उसे मिट्टी में दफ़न नहीं किया गया,
उसे आग में जलाया भी नहीं गया,
पिघला कर उसका जिस्म, हड्डियाँ और आत्मा,
घोल बना दिया गया ।
भाग्य की मथनी बनी, समय बना नेती
और फिर मंथन किया गया,
निकला पीड़ाओं का हलाहल ।
ऐसा शिव कहां जो कंठ में धारण करे,
पन्नों को सोखने को दे विष दिया गया ।
उभर आईं विरह-कविताएं..
निकला प्रेम-अमृत से भरा घट
कौन उसका बोझ सहे,
उसे धरा पर , पहाड़ों पर बिखरा दिया गया,
अंकुरित हो उठी जीवन की लताएं..
जो बच गया, वह किसी के काम का न था,
किसी को चाहिए न था,
उसे भाप बना दिया गया ।
वो मिल गई हवाओं में,
बहने लगी घटाओं में,
और कभी उतर आती
निरतंर बहती जल धाराओं में ।
वो अब भी होगी यहीं कहीं,
परंतु वो जिस नाम से
जानी जाती थी,
उस नाम से अब
वो नहीं रही..।।
