STORYMIRROR

Prashant Kaul

Abstract

4  

Prashant Kaul

Abstract

वो जब रात को आता है

वो जब रात को आता है

1 min
318

अंधेरे में चलता है बेखौफ सा

दिन के उजाले में जाने कहां जाता है

जब सन्नाटा बाहें फैलाता है

और हर चेहरा काला नज़र आता है

वो जब रात को आता है !


सड़कें खाली खाली सी लगती हैं

दिल में एक डर घर कर जाता है

जो चलता है सीधी राह पर दिनभर

रात को अपना आपा खो जाता है

दिलो-दिमाग पर एक सुरुर सा छा जाता है

वो जब रात को आता है !


करता है गुनाह खामोश गलियों में

चीखें दब जाती हैं रहम किसी पे ना आता है

चरम सीमा पर हैवानियत होती है

एक फितूर सा दिमाग पर छा जाता है

वो जब रात को आता है !


बचना है अगर उससे रात के अंधेरे में

तो खुद को ही बदलना होगा

क्यूंकि अपनी मांगे पूरी करवाने की खातिर

वो हर रात पीछा करता जाता है।


कुछ ना कर पाएगा कोई भी

बस इंसान हैवान बनता जाता है

खोकर वजूद अपना

एक दरिंदा बनकर रह जाता है।

वो जब रात को आता है

वो जब रात को आता है !


ଏହି ବିଷୟବସ୍ତୁକୁ ମୂଲ୍ୟାଙ୍କନ କରନ୍ତୁ
ଲଗ୍ ଇନ୍

Similar hindi poem from Abstract