वो बूढ़ी माँ
वो बूढ़ी माँ
वो वृद्धाश्रम के
एक कोने में पड़ी चारपाई ।
उसमें सिसक रही,
न जाने किसकी माई ।।
दूर रखे टेलीफोन को,
निहार रही है माँ ।
रोज़ शाम को फोन करूँगा,
बोल कर गया था बेटा ।।
उसके दोनों हाथों की,
सिलाई आपस में लड़ रही है ।
पोते को स्वेटर दूँगी,
बहुत सर्दी पड़ रही है ।।
मैदा ले आई माँ,
गुजिया बेटे को भाती है ।
चाव से खायेगा,
बहु मुझ जैसी न बनाती है ।।
लो आ गई होली,
रंगो से सराबोर है दुनिया ।
आंसुओं की होली,
बेरंगी रह गई वो बुढ़िया ।।
उफ़ आई गर्मी,
बेटा मिलने आओ न ।
लू से बचाए जो,
वो आम पना पी जाओ न ।।
बारिश का दौर,
घर पर टपकता था पानी ।
बहु ने क्या रखे होंगे,
बर्तन, बैटरी में डल जाता ये पानी।
दीवाली आ गई,
पांच दीये घी के जरूर जलाना ।
गोवर्धन पर भोग,
कड़ी बाजरा के साथ जिमाना ।।
फिर ये ठण्ड आ गई ।
पिछले साल का स्वेटर यूँ ही रखा है ।
पोता तो बड़ा हो गया होगा ।
अब स्वेटर किस काम का रहा है ।।
ऐसे ही क्या हर,
साल बीत जायेगा, सोचती हूँ ।
बेटा मेरा कहाँ है,
मुझे कब ले जायेगा, सोचती हूँ ।।
माँ अब तुम यहाँ से चलो,
दूसरे आश्रम, सेवक की आवाज ।
ना मैं यहाँ से कहीं न जाऊंगी,
बेटा मेरा लेने आएगा, पूरा है विश्वास ।।