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Navin Madheshiya

Abstract

5.0  

Navin Madheshiya

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वो बचपन के दिन

वो बचपन के दिन

2 mins
382


वो बचपन के दिन सपनों जैसे

झिलमिल याद आती है

वह कहानी मम्मी की जुबानी

क्या थे दिन, क्या थी रात 


मां की कही हर वो बात याद आती है

मां अब तुम कहां हो मेरे पास आ जाओ

मां के हाथों की बनाई रोटी 

मां के हाथों की बनाई मिठाई याद आती है


वह बचपन के दिन सपनों जैसे

झिलमिल याद आती है

मां की बहुत याद आती है 

मां के हाथों के सिले

शर्ट बहुत याद आती है 


मां अब तुम कहां हो

मेरे पास आ जाओ 

वह बचपन के दिन

सपनों जैसे झिलमिल याद आती है

वो मां के साथ बिताए हुए पल

वो बचपन का एक-एक पल


जब मां के साथ खेला करता था लुकाछिपी

तब ना देखी थी उसके चेहरे पर मायूसी 

हमारी खुशी में अपना दर्द छुपा ली

हमारा दर्द अपना बना ली

क्या ऐसी होती है मां 


या हो तुम सब माताओं की मां

तुमने जब मुझे दुनिया की बात समझाई

मैंने की थी तुम्हारी खूब खिंचाई

दुनिया की बुरी आंधी जब

तक मुझ तक पहुँचती उससे पहले ही

तुम मुझे अपने आंचल में छुपा लेती


था मालूम तुम्हें भी कष्ट होता है 

यही सोच कर मेरा मन रोता है

ना जाने फिर कब मिलोगी माँ

मिलोगी या फिर दूर रहोगी माँ

ना की थी ऐसी भूल


जो तुम चली गई इतनी दूर

मुझे अब अपनी गलती खटकता है 

इसलिए यह मन सिसकता है 

ना यूं हमको तड़पाओ 


हे माँ तुम वापस चली आओ

अब तुम केवल यादों में रह गई

हे मां तुम कहां छिप गई 

खोजता है ये मन वो दीवारें ,गलियारे सभी 

जैसे गुजरी हो तुम यहां से अभी


हे समय तुम थोड़ा ठहर जाओ 

मां तुम कहां हो वापस चली जाओ 

मां तुम कहां हो अब वापस चली आओ 

तुम्हारी पढ़ाई गई गिनती, पहाड़े याद है 


मैं जो बचपन में करता था गलती

वो शरारतें याद है 

मैं अब वह शरारती नहीं करता हूं 

तुम्हारी बात को मैं एक सीख समझता हूं


हे माँ तुम कहां हो वापस चली आओ

बचपन के दिन सपने जैसी झिलमिल

वो बचपन के दिन सपनों जैसे झिलमिल।


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