वंचक यानि धोखेबाज
वंचक यानि धोखेबाज
दुःख की इंतहा तो तब होती
जब हमसफर धोखा दे मुकर जाता।
पाक दिल पर खंजरों का वार कर जाता।
काश! उसे उस खुदा के घर का खौफ होता
तो वह उसकी जुल्फों से अपने मासूमों के
अरमानों का गला यूँ न घोट जाता ।
काश! उसकी माशूका को
घरौंदे के तिनकों का दर्द छू जाता
तो एक जहान उजड़ने से बच जाता ।
अभी दिल की आह का अंदाजा नहीं
इस आह में बड़े-बड़े तुर्रम खां का अहम
खाक में मिल जाता।
धोखेबाज सिसकता नजर आता ।
किसी का आशियाना खंडित करना आसान नहीं
क्योंकि उस प्रांगण के
नुकीले कंकरों से कोई नहीं बच पाता।
तमाम उम्र अपने ही जख्मों के
दर्द में कहराता नजर आता।
दगाबाजी कभी अपनों से करना नहीं
नहीं तो ये विष बन
स्वयं की ग्रीवा छलनी कर जाता।
बैठे-बैठे तबाही मजा जाता।
आँगन में खेलते खिलौनों के दिल तोड़ जाता
और खुद भी छलिया रोता नजर आता।
धोखा एक काफिर क्षण में
बरसों के विश्वास ,भरोसे,
अपनत्व को सूली चढ़ा जाता।
खुद को छुपाने के लिए
कितनों को नेत्रहीन कर जाता।
पर सत्य का तेज़ सब उजागर कर जाता
वंचक विलाप करता नजर आता ।
दामिनी का देवालय ताजमहल से भी कीमती
उसे ढहा , कोई सांस ले नहीं पाता
स्वयं के फरेब में फंसकर रह जाता।
दुःख की इंतहा तो तब होती
जब पिया धोखेबाज ,दगाबाज, छलिया
फरेबी, वंचक बन मुकर जाता ।
