ritesh deo

Abstract

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वक्त और उम्र के बदलाव

वक्त और उम्र के बदलाव

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सुना है कल तक जो बच्चा था,

आज वो मर्द बन गया है....


जो कभी बेफिजूल की बातों में हंसता था,

आज वो दर्द का हमदर्द बन गया हैं....

अरे! जो कल तक अपनी मनमानी करता था,

ना जाने क्यूं ?

आज अपने सपने को एक पल में वो कुर्बान करने लग गया हैं....


हाॅं, इतना आसान तो नहीं होता,

एक सच्चा और अच्छा मर्द बनना....

सीना चौड़ा करके घूमने वाला भी एक दिन,

परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने की कीमत

वो अपने सपनों को ठुकरा कर निभाने लग गया है...


कल तक जो एक थप्पड़ का जवाब भी चार थप्पड़ से देता था,

सुना है आज वो दूसरों का दर्द भी सहने लगा गया है....


इंसान ही है वो कोई खुदा तो नहीं,

फिर वो क्यों हर दर्द को हॅंसी से गले लगाने लग गया है...


कौन कहता है कि ये मर्द रोते नहीं,

बस देखते ही किसी को..

वो आंसू को अपने घूंट में भर,

सिरफिरा-सा मुस्कुराने लग गया है...


जानते हों..

बचपन में सबसे शरारती और नटखट-सा वो एक बच्चा,

आज जिम्मेदार भाई, पति और बाप बन वो खुद को भूल सबका बोझ..

बिना शिकन लाए संभालने लग गया है ..

 

                      


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