विनाशकारी
विनाशकारी
जाति, पात संकीर्ण मानसिकता
ये हैं विनाशकारी अभियंता
मानव ही मानव को भेद रहा
इंसानियत में कर छेद रहा है
ना जाने क्या पाने की होड़ है
अपना ही अपने को छोड़ रहा
कितना भी मिले लगता है कम
लालच में दुनिया को तोड़ रहा
अपना वजूद दिखने को
इस धरा को ही खोद रहा है
यह भूल कर की उसी पर
वह खुद भी खड़ा है ,
बने शेख चिल्ली सब यहां
अपनी दुनिया का गम कहा।