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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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विखराव

विखराव

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जैसे आकाश में

रंग बिरंगे बादल

कहीं लाल,कहीं सुनहले

कहीं भूरे

तैरते है हवाओं के साथ

इधर उधर

चारो तरफ

अकाल के समय।

उदासी की बहती हुयी हवा में

आंखें झेलती हैं उदासी का दंश।

जीवन बोझिल मन से निष्क्रिय

हो जाता है।

याद आती है कोई अदृश्य सत्ता

अनगिन नाम से। 

ठीक ठीक उसी प्रकार

भावनाओं के बादल विखरे हैं

मन के आकाश में।

 जीवन सुनता है

मनुष्यता का राग 

उभरता हुआ इस छोर से

उस छोर तक और

यहाँ भी।

पर राजनीति वहाँ

धर्म उस तरफ

अध्यात्म दूर आकाश में गुम

बरसने वाले बादल की तरह।

ये विखराव तो

मनुष्य रोक सकता है

आखिर धर्म उसी का है

राजनीति उसी की

आध्यात्म उसी के लिये है

और मनुष्यता तो सिर्फ उसी की है।


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