विहग
विहग
विहग चंचल चपल
मुद्रा जिसकी रहती प्रसन्न अविरल
विचरता मंँडराता कभी नील गगन में
लता से डाली तक यात्रा करता चल चित्त मगन में
फुहारों को पर्णों की ओट से निरखता
जल की बूंँदों को देख कभी नेत्रों में भरता
उच्चता की ओर भरकर उड़ान
कभी इन्हीं पुतलियों से हिमालय के दर्शन करता
फिसल कर कभी कल-कल झील में स्नान करता
कभी केसर की सुगंध में होकर मंत्रमुग्ध
उन्हीं की बहारों में साजो श्रृंगार करता
मस्त राग संग हो मलंग कभी समीर सार होता
हौसलों में सख़्त चट्टान मानिंद सदृश
अंतर से निस्वार्थ नरम दिल होता
पलकों पर आशा की पुरवाई भाव सुघर रखता
हो बेखबर स्वार्थी मानव के जीवन से
उठकर पावन उत्पल के उत्कल छवि में रहता
प्रेम की गंगा समान अनवरत बहकर
अपनी ही दुनिया में हर पल वह खुश रहता।