विद्रोह करो
विद्रोह करो


ऐ लड़कियों,
उठो,
बाहर निकलो
लांघों दहलीजों को
और करो विद्रोह इस समाज से।
खुद कब तक ढकती रहोगी
इन उभरे जख्मों को..!
कब तक सहती रहोगी
इन अत्याचारों और प्रताड़ना को,
बहुत हो गया
अहसानों तले दबना,
कभी तो आवाज लगानी होगी
खुद पर हो रहे जुल्मों को
बस कहना होगा।
ये समाज क्यों नियम बनाएं
तुम्हारे लिए?
जिस पर ये खुद नहीं चलते,
तोड़ दो अब उन बंदिशों को
जो घोटती है तुम्हारी सांसों को,
रोकती हैं तुम्हे आगे बढ़ने से।
तुम भी इंसान हो
इसी समाज का हिस्सा हो,
तुम्हे भी दर्द होता है
भावनाएं तुम्हारी भी आहत होती हैं,
तुम्हारे भी अरमान हैं
आंखों में सुनहरे सपने सजे हैं,
फिर ये कुप्रथाएं, कुरीतियां,
अंध विश्वास और रीति रिवाज
सिर्फ तुम्हारे लिए ही क्यों?
क्यों नहीं रोकते
ये वासनायुक्त नजरों को
जो ऊपर से नीचे
अंदर से बाहर तुम लड़कियों को
छूते हैं अपनी दूषित नज़रों से।
क्यों ये समझते हैं
तुम्हे मात्र एक दोयम
जो हाड़ मांस का बना है?
क्यों इनकी फब्तियां होती हैं
सिर्फ तुम्हारे लिए?
क्यों ये तुम्हे बंदिशें लगाते हैं
टोकते हैं आते जाते?
क्यों ये तुम्हे छेड़ते हैं?
क्यों ये तुम्हारे हर काम में
गलतियां ढूंढ़ते हैं?
क्यों तुम सिर्फ देह हो इनके लिए?
जिसे भोगते हैं
ये अपनी ही मर्जी से,
जहां तहां जब मन करता है इनका,
क्या तुम सिर्फ भोग हो?
ये घुटन लड़की होने का
महसूस किया क्या तुमने..!
क्या तुम नहीं महसूस करती
इनकी मानसिक विकृति को...!
तुम सब ने झेला है ये दंश
कभी ना कभी,
तो चुप रहना
क्या जीना है?
बाहर तो निकालना होगा,
तुम लड़कियां हो तो सहते रहें,
ये अब नहीं होगा,
तुम सबको जुड़ना होगा
एक दूसरे से रूह तक,
तोड़ना होगा ये तिलिस्म
इस भोगी समाज का,
होना होगा आजाद,
समाज कि इस गंदगी से,
यही सपना है तेरा मेरा
हम सब का होना चाहिए,
हम साथ साथ रहें,
मेरा दर्द तेरा भी हो,
तभी पूरा होगा ये प्रण
इस कुत्सित समाज से
तुम्हारी आजादी का,
तुम्हारा जीवन सिर्फ तुम्हारा हो,
तुम्हें भी आजादी हो
हर बार के लिए,
भले वक्त लगेगा इसमें अभी बहुत,
पर दशकों की इस बीमारी को
दूर करने में पहल,
हमे ही करनी होगी,
मिल कर साथ साथ,
अंत तक.............।