विधवा का विवाह
विधवा का विवाह
क्या हक़ है तुम्हें ऐ ईश्वर
एक हंसती खेलती ज़िन्दगी को उजाड़ने का
क्या द्वेश है जो तुम साधते हो
उस नारी के श्रृंगार को बिगाड़ने का,
जब छिन ही लिया है तुमने
तो अब प्रश्न क्या शेष है
उस विधवा के जीवन में
अब क्या श्वेत वस्त्र ही शेष है?
यह जीवन किसी के जाने से
कभी नहीं रूका करता है
यह तो अथाह सागर है इच्छा का
जो बिना रूके बहा करता है,
जो कोई जगा सके
प्रेम उस बूझे संसार में
जो प्रेम सीमा से परे
लेकिन हो संस्कार में,
तो क्या विधवा को हक नहीं
के वो फिर प्रेम गान गाए
शरीर मरा करता है, प्रेम नहीं
यदि संसार यह सत्य जान पाए,
तो विधवा को भी नया जीवन मिले
यह संसार न इतना क्रुर बने
राख कि भोगीन न रह कर
फिर शोभा उसकी सिन्दूर बने,
यह संसार भी तो कुछ ऐसा है
के इस विवाह को बुरा कहे
फिर क्यों हर पिता
विधवा बेटी के जीवन को अधूरा कहे,
अब समाज से ऊपर उठ कर
इस श्वेत नियम को बदलना होगा
विधवा को भी रंगों का हक है
इस सत्य को सबको मानना होगा
