वह........ लिखो
वह........ लिखो
क्या......?
कब.......!
क्यों.......... ?
किस लिए......!
के
प्रश्नों में,
क्यों हम उलझते हैं।
लिखावटों से ,
पीढ़ी दर पीढ़ी के,
सोपान जब बदलते हैं।
क्या लिखूँ.....
यह सोच कर,
कलम रूक न जाये।
वो लिखो ...
सोच जहाँ थम न जाये।
जिंदगी के सोपानों से होती हुई।
क्षितिज तक ले जायें।
जिंदगी के तमाम पहलू,
लिखों।
कुछ आम,कुछ खास,
लिखों।।
ईश्वर को, अभार व्यक्त करते हुयें।
जीवन की कहानी
लिखो।
वेदों की जीवन में,बहती रवानी।
लिखो।।
लिखो...........
मानवता सर्द क्यों हो गई है।
ईश्वर की बनाई।
स्वर्ग रूप धरती को,
नरक में क्यों झोंक रही है।
लिखो..........
दिलों में अब,
प्रेम के बीज।
अंकुरित क्यों होते नही अब।
मानवता अपने हाल पर।
क्यों.....
ज़ार-ज़ार रो रही है।
लिखों.........
हम क्यों अपनी ,
सभ्यता भूल गये।
हम तो.....
अंधविश्वासों से ,
लड़ने वाली सभ्यता है।
हम क्यों....
ढ़ोंगी बाबाओं के चक्रो में आ गये।
लिखो.......
जिस बेटी की,
आज़ादी के लिए लड़े थे।
आज बाहर,
कदम रखते ही उसपे क्यों...?
सवाल खड़े है।
लिखो.......
जिंदगी क्यों.......!
भाग रही है।
मौत की तरफ।
क्यों हम,
लाशों के ढेर पर जी रहे हैं।
मानवता को सींचने वाले,
प्रेम के रस में।
क्यों हम ,
नफरतों का विष घोल रहे हैं।
लिखना और लिखते रहना।
ताकि.....
सारे न सही,
कुछ तो सही।
अपने अस्तित्व को पहचान सकें
खुद से साक्षात्कार कर,
खुद को जान सके।
मानवता के पथ को पा सकें।।