वह भी एक औरत थी
वह भी एक औरत थी
जिस की कोख में
नौ माह तक अंकुरित होकर
इस जीवन का पहला पाठ पढ़े थे-
जिसकी बांहों की ऊष्मा में,
और स्तन की जीवन धारा से तुम तपे थे-
जिस वट वृक्ष की
निर्मल छाया में तुम खोये थे-
जिसके सीने की गद्दी पर बिना डरे तुम सोये थे--
जो खुद
भूखी रह कर क्षुधा तुम्हारी रही मिटाती
जो तुम्हें सुलाने के बाद न जानें कब सो आती -
वो जो
तुम्हारी एक आह पर डर जाती-
तुम्हें दर्द में देख जो जीते जी मर जाती-
वह आंखें
तुम्हारी मुस्कान
देख कर मुस्करातीं थी-
और तुमको रोता देख स्वयं समुंदर बन जातीं थी--
जो हर मौसम की
मार से हर पल तुम्हें रही बचाती-
हर कठिनाई पर अपने तन को दीवारी सी रही बनाती-
वो जो
तुम्हारे जन्म से अपने मरण तक सपनों के धागे बुनती थी-
धुंधली आँखों से राह के कांटे चुनती थी-
जो प्यार का बोसा लेकर
सोते हुए भी तेरे पेशानी पर झुक जाती थी-
अपनी कांपती
उंगलियों से बालों को सहलाती थी-
जब तक
श्वासों साथ थी उसकी
देकर जीवन की हर खुशी तुम्हें
खुद माटी की मूरत थी-
अरे! मां के रूप में
जीवन में सर्वस्व लुटाती वह भी एक औरत थी-
