उदास कलाई
उदास कलाई
हे कृष्ण
सूनी क्यों है
कलाई तुम्हारी
पूछ गोपिका
कुछ धीमे से
यूँ मुस्काई
क्यों रूठी है
द्रोपदी तुमसे
क्यों माहौल में
अशांति छाई है
द्रोपदी की लाज बचाकर
तुमने अपना फर्ज निभाया था
लाचार द्रोपदी की खातिर
तुमने उसका चीर बढ़ाया था
होंठों की चुप्पी तेरी
मन में प्रश्न उठाती हैं
उदास कलाई भी अब तो
द्रोपदी को बुलाती है
ब्रज के उन ग्वालों से
पता चली यह बात
नारी अस्मिता के खातिर
है उदास द्रोपदी आज
न
ारी के सम्मान को
पहुंची क्यों है इतनी ठेस
प्रतिपल उनके विश्वास को
क्यों नोचे फरेबी भेष
हे कृष्ण तुम्हारी छाया में
क्यों आहत हुई स्त्री हर बार
भीगी पलकों से द्रोपदी
पूछती है हर एक बात
मैंने तो अपना वचन निभाया
भक्तों की पुकार से दौड़ा चला आया
बहन रक्षा कवच के मान को
मैंने स्वीकार किया है
स्त्री की लाज बचाने
मैंने हर बार अवतार लिया है
लो अब तो प्रेम के डोरे से
कलाई मेरी भर दो
अपनी मीठी वाणी से
एक बार भ्राता मुझे कह दो।