तू क्या जाने पीर मेरा
तू क्या जाने पीर मेरा
मैं एक भावना जो
न पढ़ा न सुना जा सके
एक स्पन्दन हूँ
जो महसूस किया जा सके
कभी कुन्ती की
तो कभी गाँधारी की
तो कभी धृतराष्ट्र और
पितामह के लाचारी की
मैं राधा के प्रीत
सुदामा के संघर्ष
कृष्ण के गीता
अहिल्या को पद स्पर्श
मैं क्षणिक नहीं
जो व्यक्त हो जाऊँ
मुझे घटने में युग लगे
एक क्षण मैं कैसे नजर आऊँ
मैं सत्य पालन राम का
जानकी के परीक्षा और
लक्ष्मण के सुख बलिदान
या कहूं समय का वो सब दौर
मैं छलकता हुआ आंसू
जो जीवन से रिसता रहा
युगों युगों तक मेरा
जीवन दो पाटों में पीसता रहा
समय बदला शक्ल बदले
फिर भी न बदला तकदीर मेरा
मैं रिसता रहा रिसता रहूंगा
तू क्या जाने पीर मेरा।
