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Krishna Khatri

Abstract

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Krishna Khatri

Abstract

तुम मिली

तुम मिली

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इस जिन्दगी के सफर में 

निहायत अकेला था मैं 

लेकिन चल रहा था 

अपनी मंजिल की तलाश में 

जाने कितनी दूर तलक 


चलता रहा

चलता रहा

मंजिल तो न मिली 

राह कठिन थी 

मुश्किल था

मंजिल तक पहुंचना


फिर भी

जारी रही मेरी कोशिश 

चलते-चलते तुम मिली 

मेरी खुशी का पारावार न था 

गदगद कंठ से मैंने कहा


चलो अच्छा हुआ तुम मिली 

मैं अकेला था 

तुम मिली तो

हम दो हो गये !


तब तुमने बड़े ठसके से कहा

नहीं दो नहीं 

ऐसा कहो कि

हम ग्यारह हो गये 

भला वो कैसे ?


एक और एक तो

होते हैं केवल दो !

हां-हां बिल्कुल

पर एक और एक 

होते हैं ग्यारह भी !


जैसे कि हमारे दो पांव

दिखते हैं ग्यारह 

बनते हैं ग्यारह 

काम भी करते हैं।


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