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usha shamindra

Abstract

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usha shamindra

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ठूंठ

ठूंठ

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और वो भी 

ठूंठ हो गई।


जब वह एक नन्हा सा 

छोटा सा

कोमल पौधा थी

हवा का हर झोंका

उसे गुदगुदा जाता था

कहीं दूर बजती बांसुरी सुन

उसकी नन्ही कोपले

मस्त हो 


अपने नन्हे पर पसारने

लगती थी

पानी की नन्ही नन्ही बूंदें

जब नाचती, पत्तियों से 

अठखेलियां करती, छेड़ती

वह आनन्दित हो हंस देती खिलखिलाती


खिलखिलाना झूमना नाचना

कितना सहज था उसके लिए।

जब वह पास खड़े ठूंठों को देखती

सोचती ये इतने कठोर और

रूखे क्यों है  ये हंसते क्यो नहीं

ये झूमते इठलाते क्यों नहीं

हवा इन्हें गुदगुदाती

बहलाती सहलाती क्यों नहीं


समय बीतता गया

वो बड़ी होती गई

समझदार हो ती गई

उसकी हंसी मस्ती

खोती गई


वह नाचना गाना झूमना

इठलाना भूलती गई

रोज के आघातों 

थपेड़ों से

वह ठूंठ हो गई

वह भी ठूंठ हो गई।


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