तृष्णा
तृष्णा
तृष्णा,
बस प्रेम से वसुधा सजाने की,
बस प्रेम से दिलो को मिलाने की,
बने जब सब प्रेम तत्त्व से,
क्यो न फिर ये विकसित हो,
हर दिल मे,हर कर्म में भी,
बस प्रेम ही प्रेम का दर्शन हो,
हैं तृष्णा बस इतनी सी ही,
बस प्रेम ही वेशभूषा हो,
बस प्रेम की भाषा हो,
प्रेम की ही ईटो से बना,
वसुधा,एक घरौंदा हो,
न कोई तृष्णा और हैं मेरी,
बस हर दिल,
उस प्रियतम का घर हो,
प्रेम भरा ये घर,
बस प्रेम से प्रकाशित हो,
फिर रहेगा,न कोई द्वेष,
न कोई भेद होगा,
बस प्रेम ही प्रेम होगा,
बस प्रेम ही प्रेम होगा।।