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Vibha MIshra

Abstract

5.0  

Vibha MIshra

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तरंगिणी

तरंगिणी

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340


कल-कल कर बहती धारा

किस ओर चली

किस ओर था जाना

कौन जान सका, किसने है, जाना।


इठलाती व बलखाती

शांत, कभी उफान उठाती

अवरूद्धौं से क्या डरना

डगर अपनी जब स्वयं ही चुनना।


पर्वतों का सीना चीर

दिया जग को अविरल नीर

मैं हूं जीवन

मुझसे है जीवन।


पर,हाय री किस्मत

समय की ये व्यथा

किससे कहूं, कहां कहूं

मैं अपनी ये कथा।


काल के पड़े कुछ ऐसे चरण

हो गया मेरा व्यवसायीकरण

एक ओर तो कहते, मां मुझको

पर मार दिया बांधों में, बांध मुझको।


क्या मैं सिर्फ तुम्हारी हूं ?

कुछ और जीवन भी मुझमें पलते हैं

पाकर मेरा स्पर्श मात्र

फूलों सा खिलते हैं।


अकलुष हो कर जब मैं बहती

तुम्हारे मन के मैल को धोती

अंजान नहीं कि अंबुधी ही है मेरा अंत

फिर भी मिठी, निर्मल, उज्जवल और शांत।


करके मुझको तुम गंदला

अब क्यूं गय तुम पगला

मैं भरूं तुम सब में प्राण

मेरा कौन करे तराण।


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