तो क्या ?
तो क्या ?


तूफ़ान बीता भगा थका हारा हम से,
आशियाँ उजाड़ जाये भी तो क्या ?
हौंसले तो कतई नहीं मिटेंगे,
बार-बार वह पलट के आए भी तो क्या?
वह अपनी सारी चपलताएँ- विध्वंशकताएँ
सारी अनिष्टताएँ आज़माए भी तो क्या?
सृजन मेरा धर्म है, ध्वंस उसका,
हमारे टक्कर गर कांटे की न हो,
तो मज़ा ही क्या?
उठ जाग चुके है, फ़तेह करेंगे,
पथरीला सफ़र अनंत है तो क्या?
उस पर रोशनी दे, बुला रहा सूरज,
गहन-तिमिर कुछ पल घेर भी ले तो क्या?