तमाशे
तमाशे
खुद को
अब दबा लिया है
तमाम उलजुलूल से दिखते
तमाशों के बीच।
अर्थ हीन तमाशे
जो परवाह नहीं करते
किसी भी प्रतिक्रिया की
ये बस होते है और आगे बढ़ जाते है
फिर से एक नया करतब दिखाने को
नई उम्मीद और नए कलेवर में
उसी कहानी को
बार बार सुबह शाम
दोहराते हुए।
हर दिन पहुंच जाती हूँ
वहां जहां उनकी रौनकें होती हैं
झूठा ही सही पर
कुछ पल का सुकून होता है
जहां अहसास नहीं रहता
तुम्हारी सौगात का
तुमसे मिले
अकेलेपन का।